२९. ध्यानसूत्र
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य ।
सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥1॥
शीर्षं यथा शरीरस्य यथा मूलं द्रुमस्य च।
सर्वस्य साधुधर्मस्य तथा ध्यानं विधीयते ॥1॥
शीश श्रेष्ठ शरीर में, जड़ पेड़ का मूल।
मुनि धरम बस ध्यान में, साधु कभी ना भूल॥2.29.1.484॥
जैसे मनुष्य शरीर में सिर श्रेष्ठ और वृक्ष में जड़ उत्कृष्ट है वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।
Just as the most prominent part of a man’s body is head and that of a tree e is root; similarly the most prominent part of a saint conduct is meditation (Dhayana). (484)
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जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चलंतयं चित्तं।
तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता ॥2॥
यत् स्थिरमध्यवसानं, तद् ध्यानं यत् चलत्कं चिंत्तम्।
तद् भवेद् भावना वा, अनुप्रेक्षा वाऽथवा चिन्ता ॥2॥
ये मन की एकाग्रता, होती सदा सुध्यान।
चित्त भावना चंचलता, अनुप्रेक्षा प्रधान ॥2.29.2.485॥
मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है। चित्त की चंचलता के तीन रूप हैं। भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता।
A steady state of mind constitutes meditation while an active mind might be engaged in either contemplation or deep reflection or thinking. (485)
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लवण–व्व सलिल–जोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स ।
तस्स सुहा–सुह–डहणो, अप्पा–अणलो पयासेइ ॥3॥
लवणमिव सलिलयोगे, ध्याने चित्तं विलीयते यस्य।
तस्य शुभाशुभदहनो, आत्मानलः प्रकाशयति ॥3॥
घुले नीर में लवण सम, चित्त विलय हो ध्यान।
शुभ–अशुभ हो कर्म दहन, आत्म प्रकाश महान ॥2.29.3.486॥
जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है उसकी चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करने वाली आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है।
Just as salt dissolves due to its contact with water, similarly if the mind becomes absorbed in meditation, the fire of soul shines brightly, burning the auspicious and inauspicious karmas. (486)
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जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो ।
तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी ॥4॥
यस्य न विद्यते रागो, द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म।
तस्य शुभाशुभदहनो, ध्यानमयो जायते अग्निः ॥4॥
राग द्वेष व मोह नहीं, नहीं योग संपन्न ।
शुभ–अशुभ हो कर्म दहन, अग्नी हो उत्पन्न ॥2.29.4.487॥
जिसके राग द्वेष और मोह नहीं है तथा मन वचन काय रूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है।
If a person is free from attachment, hatred, delusion and activities of the mind, speech and body, he becomes filled with fire of meditation that burns the auspicious and inauspicious Karmas. (487)
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पुव्वाभिुहो, उत्तरमुहो व, होऊण सुइ–समायारो ।
झाया समाहिजुत्तो, सहासणत्थो सुइसरीरो ॥5॥
पूर्वाभिमुखः उत्तरमुखो वा भूत्वा शुचिसमाचारः ।
ध्याता समाधियुक्तः सुखासनस्थः शुचिशरीरः ॥5॥
पूरब, उत्तर मुख करे, आसन शुद्ध आचार।
ध्यान समाधि में धरे, मन में शुद्ध विचार ॥2.29.5.488॥
पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठने वाला ध्याता सुखासन से स्थित हो समाधि में लीन होता है।
A person who being pure in thought and body, concentrates his mind sitting in a comfortable posture, facing the East or the North, becomes absorbed in perfect meditation. (488)
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पलियंकं बंधेउं, निसिद्धमण–वयणकायवावारो ।
नासग्गनिमियनयणो, मंदीकयसासनीसासो ॥6॥
पल्यङ्कं बद्ध्वा निषिद्धमनोवचनकायव्यापारः ।
न्यासग्रनिमित्तनयनः मन्दीकृतश्वासनिःश्वासः ॥6॥
पल्यंकासन में रहें, रोक योग व्यापार।
दृष्टि नासिका पर रहे, मंद श्वास हर बार ॥2.29.6.489॥
वह ध्याता पल्यंकासन बाँधकर और मन वचन काय के व्यापार को रोक कर दृष्टि को नासिकाग्र पर स्थिर करके मन्द मन्द श्वाच्छोवास ले।
A person (engaged) in meditation should sit in the palyanka posture, stop all activities of mind, speech and body, fix the gaze of his eyes one the tip of his nose and slow down his expiration and inspiration. (489)
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गरहियनियदुच्चरिओ, खामियसत्तो नियत्तियपमाओे ।
निच्चलचित्तो ता झाहि, जाव पुरओव्व पडिहाइ ॥7॥
गर्हितनिजदुश्चरितः क्षमितसत्त्वः निवर्तिततप्रमादः ।
निश्चलचित्तः तावद् ध्याय यावत् पुरतः इव प्रतिभाति ॥7॥
स्व आलोचन कर्म बुरे, क्षमा न भाव प्रमाद।
चित्त निश्चल ध्यान धरे, कर्म न हो बरबाद ॥2.29.7.490॥
वह अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की आलोचना करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाय।
Having condemned all one’s evil conduct having begged pardon of all the living beings, having renounced negligence, having steadied one’s mink, one ought to undertake meditation until the thing meditated looks like standing in front of oneself. (490)
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थिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं ।
मागम्मि जणाइण्णे, सुण्णे रण्णे व ण विसेसो ॥8॥
स्थिरकृतयोगानां पुनः, मुनीनां ध्याने सुनिश्चलमनसाम् ।
ग्रामे जनाकीर्णे, शून्येऽरण्ये वा न विशेषः ॥8॥
स्थिर रहे हो योग में, निश्चलमन हो ध्यान।
हो अरण्य या गांव हो, सब है एक समान ॥2.29.8.491॥
जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों को ध्यान के लिये घनी आबादी के गाँव अथवा जंगल में कोई अंतर नहीं रह जाता।
In the case of monks who have steadied all their mental, vocal and bodily activity and who have thoroughly concentrated their
mind on meditation, it does not matter at all whether they stay in a village full of people or in an empty forest. (491)
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जे इंदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु पावं निसिरि कयाइ ।
न याऽमणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥9॥
य इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः, न तेषु भावं निसृजेत् कदापि।
न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात्, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी॥9॥
समाधिकारी तपस्वी, मनोज्ञ पर करे न राग।
अमनोज्ञ विषयों के प्रति, भी रहे वीतराग ॥2.29.9.492॥
समाधि की भावना वाला तपस्वी इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे।
A monk devoted to penance and desirous of practising meditation should neither entertain pleasant nor unpleasant thoughts about the objects of senses. (492)
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सुविदियजगस्सभावो, निस्संगो निब्भओ निरासो य ।
वेरग्गभावियमणो, झाणंमि सुनिच्चलो होइ ॥10॥
सुविदितजगत्स्वभावः, निस्संगः निर्भयः निराशश्च।
वैराग्य भावितमनाः, ध्याने सुनिश्चलो भवति ॥10॥
जगस्वभाव से परिचित, असंग अभय न आस ।
वैराग्यपूरित सुचित्त, सुध्यान उसके पास॥2.29.10.493॥
जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशारहित है तथा जिसका मन वैराग्यभाव से युक्त है, वही ध्यान में स्थित होता है।
A monk becomes quite steady in his meditation if he has understood thoroughly the nature of mundane existence, is deviod of all attachment, is fearless, is desireless, and has developed an attitude of indifference to the world. (493)
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पुरिसायारो अप्पा, जोई वर–णाण–दंसण–समग्गो ।
जो झायदि सो जो, पाव–हरो भवदि णिछंदो ॥11॥
पुरुषकार आत्मा, योगी वरज्ञानदर्शनसमग्र।
यः ध्यायति सः योगी, पापहरः भवति निर्द्वन्द्वः ॥11॥
जो ध्यावे पुरुषाकार, आत्मा जो निष्पाप।
अनन्तज्ञानादि संपन्न, सो अद्वन्द्व अपाप ॥2.29.11.494॥
जो योगी पुरुष के आकारवाली तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन से पूर्ण आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मबन्धन को नष्ट करके निर्द्वन्द्व हो जाता है।
A yogin (monk) who meditates upon the soul in human form equipped with supreme knowledge and faith, is a (real) yogi; he puts an end to all his sins and becomes free from conflicting feelings of pain and pleasure. (494)
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देहविवित्तिं पेच्छई, अप्पाणं तह ये सव्वसंजोगे।
देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥12॥
देहविविक्तं प्रेक्षते आत्मानं तथा च सर्वसंयोगान्।
देहोपधिव्युत्सर्ग, निस्संगः सर्वथा करोति ॥12॥
देखता है आत्मा को, देहादिसंग भिन्न ।
वह देह से असंग हो, होता आत्म अभिन्न ॥2.29.12.495॥
ध्यान योगी अपनी आत्मा को शरीर से भिन्न देखता है अर्थात् देह का सर्वथा त्याग करके निःसंग हो जाता है।
A monk who sees that soul is distinct from body as well as from all other (external and internal) possessions; becomes free from all attachments and undertakes an absolute renunciation of body as also of all external implements. (495)
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णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को ।
इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा ॥13॥
नाहं भवामि परेषां, न मे परे सन्ति ज्ञानमहमेकः।
इति यो ध्यायति ध्याने, स आत्मा भवति ध्याता ॥13॥
न मैं पर का, न परमेश मेरा, मैं हूँज्ञायक रूप ।
यह जो ध्यावे ध्यान में, ध्याता वही अनूप ॥2.29.13.496॥
वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तन करता है कि “मैं न पर का हूँ न पर मेरे हैं”। मैं तो एक शुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ।
That soul verily undertakes meditation which at the time of meditation knows as follows: “I do not belong to the others nor do the others belong to me while I am all alone and of the form of knowledge.” (496)
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झाण–ट्ठिओ हु जोइ, जइणो संवेइ णियय–अप्पाणं ।
तो ण लहइ तं सुद्धं, भग्ग–विहीणो जहा रयणं ॥14॥
ध्यानस्थितो खलु योगी यदि नो संवेत्ति निजात्मानम्।
सो न लभते तं शुद्धं भाग्यविहीनो यथा रत्नम् ॥14॥
ध्यानस्थित योगी यदि न, करे आत्मानुभूति।
पाये नहीं शुद्धात्मा, ज्यों अभागा विभूति॥2.28.14.497॥
ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नही करता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नही कर सकता। जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नही कर सकता।
Verily, if a monk, while doing meditation does not attain the knowledge of his real nature of soul, he cannot secure a precious stone. (497)
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भावेज्ज अवत्थत्तियं, पिंडत्थ–पयत्थ–रूवरहियत्तं ।
छउमत्थ–केवलित्तं, सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो ॥15॥
भावयेत् अवस्थात्रिकं पिण्डस्थ–पदस्थ–रूपरहितत्वम् ।
छद्मस्थ–केवलित्वंसिद्धत्वं चैव तस्यार्थः ॥15॥
पिण्डपदस्थरूपातीत ये, ध्यान कहे त्रि रूप।
देहप्रेक्षा, पदचिन्तन, विषय आत्मस्वरूप ॥2.29.15.498॥
साधक तीन अवस्थाओं की भावना करे। पिण्डस्थध्यान-देह विपश्यत्व। पदस्थध्यान-केवलि द्वारा बताये गये अर्थ का चिंतन। रूपातीतध्यान-सिद्धत्व शुद्ध आत्मा का ज्ञान।
One must undertake meditation over the three states technically called pindastha, padastha and ruparahitatva which respectively stand for an ordinary embodied soul, an embodied soul that has attained omniscience and an emancipated soul. (498
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अवि झइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं ।
उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥16॥
अपि ध्यायति सः महावीरः, आसनस्थः अकौत्कुचः ध्यानम्।
ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च, प्रेक्षमाणः समाधिम् अप्रतिज्ञः ॥16॥
महावीर का ध्यान ज्यूँ, उंकडू आसन ध्यान।
ऊँचे नीचे लोक के, आत्म समाधिज्ञान॥2.29.16.499॥
भगवान ऊंकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे उँचे नीचे व तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्म समाधि पर टिकी थी। वे संकल्प मुक्त थे।
That Mahavira, having assumed a particular bodily posture and having freed himself from all unsteadiness, undertook meditation. At that time he, free from all worldly desires, would meditatively inspect whatever exist in the upper region, the lower region and the transverse region of the world. (499)
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णातीत–मट्ठे ण य आगमिस्सं, अट्ठं नियच्दंति तहागया उ।
विधूत–कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥17॥
नातीतमर्थ न च आगमिष्यन्तम् अर्थ निगच्छन्ति तथा गतास्तु ।
विधूतकल्पः णजउपूदर्शी निर्सोषयिता क्षपकः महर्षि ॥17॥
विगत भविष्य देखे नहीं, वर्तमान में ध्यान।
वीर करे तन क्षीण सा, कल्पक मुक्त महान ॥2.29.17.500॥
तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नही देखते। कल्पना मुक्त महर्षि वर्तमान को देखते हुए कर्म शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
The blessed personages give no consideration to what existed in the past nor to what will exist in the future. Certainly, the great sage, free from all indulgence in imagination and concentrating his thought on what exsted in the present, first dries down and then annihilates (all his karmas). (500)
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मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिन्तह किं वे जेण होइ थिरी।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥18॥
मा चेष्टध्वम् मा जल्पत, मा चिन्तयत किमपि येन भवति स्थिरः।
आत्मा आत्मनि रतः, इदमेव परं भवेद् ध्यानम् ॥18॥
त्रियोगनिरोध हो सही, होता है स्थिर ध्यान।
आत्मलीन आत्मा रहे, ध्यान परम यह जान ॥2.29.18.501॥
हे ध्याता! तू न तो शरीर से चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल, न मन से चिन्तन कर। इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायेगा। यही परम ध्यान है।
Undertake no bodily act, utter no word and think no thought; thus you will become steady. Certainly, supreme meditation consists in a soul engaged in concentration on itself. (501)
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न कसायसमुत्थेहि य, वहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं।
श्रसा–विसाय–सोगा–इएहिं, झाणोवगयचित्तो ॥19॥
न कषायसमुत्थैश्च, बाध्यते मानसैर्दुःखैः ।
ईर्ष्या–विषाद–शोक–दिभिः ध्यानोपगतचित्तः ॥19॥
मुक्त कषायों से रहे, दुख मानस ना होय।
जलन शोक संताप नहीं, ध्यान चित्त जो खोय॥2.29.19.502॥
जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों से पीड़ित नही होता।
A mind engaged in meditation is not perturbed by miseries born of passions nor those born of mental acts nor by jealousy, remorse, sorrow etc. (502)
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चालिज्जइ बीभेइ य, धीरो न परीसहोवसग्गेहिं।
सुहमेसु न संमुच्छइ, भावेसु न देवमायासु ॥20॥
चाल्यते विभेति च, धीरः न परीषहोपसर्गैः।
सूक्ष्मेषफ न संमुह्यति, भावेषु न देवमायासु ॥20॥
परीषह या उपसर्ग से विचलित ना भयभीत।
मया, सूक्ष्मतम भाव का, धीर पुरुष ना मीत ॥2.29.20.503॥
वह धीर पुरुष न तो परीषह से न उपसर्ग से विचलित और भयभीत होता है तथा न ही सूक्ष्म भावों से मायाजाल में मुग्ध होता है।
A (monk) is neither moved nor frightened by afflictions and calamities; his mind does not become infatuated in the slightest degree, not even by the celestial illusions. (503)
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जह चिर–संचिय–मिंधण–मणलो पवणस–हदो दुयंं डहदि।
तह कम्मिं–धण–महियं खणेण झाणा–णलो दहइ ॥21॥
यथा चिरसंचितमिन्द्यन–मनलः पवनसहितः द्रुतं दहति।
तथा कर्मेन्धनममितं, क्षणेन ध्यानानलः दहति ॥21॥
संचित ईंधन जल उठे, जब भी चले बयार।
कर्मबंधन भस्म हुआ, अग्नि ध्यान आहार ॥2.29.21.504॥
जैसे चिरसंचित ईंधन को वायु सहित लगी आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म ईंधन को क्षण भर में भस्म कर डालती है।
Just as fire favoured by wind speedily burns up the fuel accumulated since long, so also, the fire of meditation destroys in a moment the unlimited fuel of karmas. (504)
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