२७. आवश्यक सूत्र
एरिस–भेद–ब्भासे, मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं ।
तं दढ–करण–णिमित्तं, पडिक्कमणादी यवक्खामि ॥1॥
ईदृग्भेदाभ्यासे, मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम्।
तद् दृढीकरणनिमित्तं, प्रत्रिमणादीन् प्रवक्ष्यामि ॥1॥
भेद–ज्ञान अभ्यास से, समता जीव सुजान ।
करना जो है दृढ़ इसे, प्रतिक्रमण बखान ॥2.27.1.417॥
इस प्रकार के भेद-ज्ञान का अभ्यास हो जाने पर जीव माध्यस्थ भावयुक्त हो जाता है और इससे चारित्र होता है। इसी को द़ृढ़ करने के लिये प्रतिक्रमण का कथन करता हूँ।
He who contemplates over the pure nature of soul after renouncing all alien states of mind, becomes really engrossed in himself; that results in (Right) conduct), self analysis and repentance for faults (pratikarmana) etc. (i.e. six necessary duties) are being, hereby, discussed. (417)
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परिचता परभावं, अप्पाणं झादि णिम्मल–सहावं।
अप्पवसो सो होदि हु, तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ॥2॥
परित्यक्त्वा परभावं, आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम्।
आत्मवशः सभवति खलु, तस्य तु कर्म्म भणन्ति आवश्यकम् ॥2॥
तज ध्यावे पदभाव को, आत्मा विमल सुभाव ।
आत्मवशी का कर्म ही, है आवश्यक भाव॥2.27.2.418॥
पर-भाव का त्याग करके निर्मल स्वभावी आत्मा का ध्याता आत्मवशी होता है। उसके कर्म को आवश्यक कहा जाता है।
He who meditates upon the nature of pure self (soul) and renounces the thought nature of non self is self controlled (Atma-vasi). His observances are designated as “Essentialduties”. (418))
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आवासं जइ इच्छसि, अप्प–सहावेसु कुणदि थिर–भावं ।
तेणदु सामण्ण–गुणं, संपुण्णं होदि जीवस्स ॥3॥
आवश्यकं यदीच्छसि, आत्मस्वभावेषु करोति स्थिरभावम्।
तेन तु श्रामण्य गुणं, सम्पूर्णं भवति जीवस्य ॥3॥
कर्म आवश्यक रख इच्छा, स्थिर आत्मस्वभाव ।
गुण सामयिक पूर्ण रहे, आवे समता भाव ॥2.27.3.419॥
यदि तू प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कर्मों की इच्छा रखता है तो अपने को आत्मस्वभाव में स्थिर कर। इसमें जीव का सामायिक गुण पूर्ण होता है। उसमें समता आती है।
One who performs acts like repentance (pratikramana) etc. attains right conduct viewed from the standpoint of niscayanaya, certainly, on account of that, a monk becomes steadfast in a conduct devoid of attachment. (419)
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आवासएण हीणो, पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो ।
पुव्वुत्त–कमेण पुणो, तम्हा आवासयं कुज्जा ॥4॥
आवश्यकेन हीनः, प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः।
पूर्वोक्तक्रमेण पुनः, तस्मादावश्यक कुर्यात् ॥4॥
करम न आवश्यक करे, भ्रष्ट चरित्र स्वभाव ।
पूर्वोक्त क्रम करे श्रमण, कर्म आवश्यक भाव ॥2.27.4.420॥
जो श्रमण आवश्यक कर्म नही करता, वह चारित्र से भ्रष्ट है। अतः पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक कर्म अवश्य करना चाहिए।
A saint who does not (regularly and properly) perform his essential duties is defiles (Bhrastta/fallen/corrupt/depraved). Hence, one should definitely perform them in aforementioned manner. (420)
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पडिकमण–पहुडि–किरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं ।
तेण दु विराग–चरिए, समणो अब्भुट्ठिदो होदि ॥5॥
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां, कुर्व्वन् निश्चयस्य चारित्रम् ।
तेनु तु विरागचरिते, श्रमणोऽभ्युत्थितो भवति ॥5॥
प्रतिक्रमण जब युक्तरहे, चरित्र निश्चित जान।
श्रमण चरित वीतराग का, शुरू हुआ उत्थान ॥2.27.5.421॥
जो निश्चयचारित्रस्वरूप प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करता है वह श्रमण वीतराग-चारित्र में आरुढ होता है।
One who has capacity to practise repentance, should do it by contemplation : a person having no such capacity, ought to have faith in its efficacy. (421)
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वयण–मयं पडिकमणं, वयण–मयं पच्चखाण णियमं च ।
आलोयण वयणमयं, तं सव्वं जाण सज्झायं ॥6॥
वचनमयं प्रतिक्रमणं, वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च ।
आलोचनं वचनमयं, तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम् ॥6॥
मात्र वचनमय प्रतिक्रमण, नियम या प्रत्याखान।
वचनमयी आलोचना, स्वाध्याय पहचान ॥2.27.6.422॥
परन्तु वचनमय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम, आलोचना ये सब तो केवल स्वाध्याय है चारित्र नही है।
But the linguistic (vacana-maya) self analysis and Expiation (pratikramana); linguistic (vacana manner) self meditation (Pratyakhyana); linguistic (vacan-maya) regulation; and linguistic (vacanmaya) confession of faults to the head of the order (alocana) all these are parts of studies (swadhyaya); they do not constitute Real character. (422)
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जदि सक्कदि कादुं जे, पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं ।
सत्ति–विहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायव्वं ॥7॥
यदि शक्यते कर्त्तुम्, प्रतिक्रमणादिकं कुर्याद् ध्यानमयम् ।
शक्तिविहीनो यावद्यदि, श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ॥7॥
यदि शक्ति संभाव्य रहे, प्रतिक्रमण कर ध्यान।
नहीं समय ना शक्ति हो, श्रद्धा श्रेष्ठ ही जान ॥2.27.7.423॥
यदि करने की शक्ति हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि कर। इस समय यदि शक्ति नही है तो उनकी श्रद्धा करना ही श्रेयष्कर कर्तव्य है।
Hence, perform meditative self analysis and Expiation (Dhyanamaya pratikramana) etc. in case you are not so capable or it is not possible to be done. For the time being one should repose faith in it. (423)
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सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणयं ।
पडिक्कमणं काउस्सग्गो पंचक्खाणं ॥8॥
सामायिकम् चतुर्विंशतिस्तवः वन्दनकम् ।
प्रतिक्रमणम् कार्योत्सर्गः प्रत्याख्यानम् ॥8॥
सामयिक जिनेशस्तुति, छह आवश्यक जान।
काम–वंदन प्रतिक्रमण, अमोह, प्रत्याखान ॥2.27.8.424॥
सामायिक, चतुर्विशति जिन-स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याखान – ये छह आवश्यक है।
The essential duties (Avasyakas) (of a saint) are six:-
1. Equanimity in friends and foes (samayiki);
2. Prayer of twenty four jinas (stava);
3. Worship of twenty four jivas (Vandana);
4. Self analysis and Expiation (Pratikramana);
5. Mortification of self (Kayatsarg/penance); and
6. Self meditation (Pratya khyana).(424)
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समभावो सामइयं, तणकंचन–सत्तुमित्तविसओ त्ति ।
निरभिस्संगं चित्तं, उचितयपवित्तिप्पहाणं च ॥9॥
समभावो सामायिकं, तृणकाञ्चनशत्रुमित्रविषयः इति।
निरभिष्वङ्गं चित्तं, उचितप्रवृत्तिप्रधानं च ॥9॥
शत्रु–मित्र तृण–कंचन में, सामायिक समभाव।
राग–द्वेष में चित्त नहीं, उचित प्रवृत्ति स्वभाव॥2.27.9.425॥
तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामायिक है। अर्थात् रागद्वेषरहित, ध्यानमग्न, उचित प्रवृत्तिप्रधान चित्त को सामायिक कहते है ।
Equanimity (samayika) consists of giving equal treatment to a blade of grass and a piece of gold or to a friend and a foe. (Inother words), it is equivalent to a mind, dominated by proper
inclinations/trends/tendencies, a mind that is free of the (abhiswanga) of attachments and aversions. (425)
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वयणो–च्चारण–किरियं, परिचत्ता वीयराय–भावेण।
जो झायदि अप्पाणं, परम–समाही हवे तस्स ॥10॥
वचनोच्चारणक्रियां, परित्यक्त्वा वीतरागभावेन।
यो ध्यायत्यात्मा, परमसमाधिर्भवेत् तस्य ॥10॥
तज वचनोच्चारण सभी, वीतराग हो भाव।
ध्यान आत्मा में रहे, परम समाधि प्रभाव॥2.27.10.426॥
जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परमसमाधि या सामायिक होती है ।
He who renounces the activity of speaking (In other words who maintains silence) and meditates upon soul in dispassionate/unattached manner, gets united with self (or becomes equanimous)(426)
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विरदो सव्व–सावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिंदिओ ।
तस्स सामइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥11॥
विरतः सर्वसावद्ये, त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः।
तस्य सामायिकंस्थायि, इति केवलिशासने ॥11॥
विरत सर्वसावद्य से, त्रिगुप्त जितेन्द्रिय सार।
हो हरदम ही सामयिक, केवलिशासन द्वार ॥2.27.11.427॥
जो आरम्भ से विरत है, त्रिगुप्तिुक्त है, इन्द्रियोें को जीत लिया है, उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा केवलि शासन में कहा गया है।
One who refrains from all sinful acts whatsoever, who practises the three controls (guptis), who has one’s sense-organs under control is alone possessed of a steadfast samayika this is what has been proclaimed in the discipline preached by omniscients. (427)
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जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा।
तस्य सामइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥12॥
यः समः सर्वभूतेषु, स्थावरेषु त्रसेषु वा।
तस्य सामायिकं स्थायि, इति केवलिशासने ॥12॥
स्थावर या हो जीव त्रस में, रखता है समभाव ।
सदा–सदा हो सामायिक, केवलिशासन भाव ॥2.27.12.428॥
जो स्थावर व त्रस जीवों के प्रति समभाव रखता है उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा केवलि शासन में कहा गया है।
One who treats as equal all the living beings whether mobile or immobile is alone possessed of a steadfast samayika this is what has been proclaimed in the discipline preached by omniscients(428)
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उसहादि–जिणवराणं, णाम–णिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च ।
काऊण अच्चिदूण य, तिसुद्धि–पणामो थवो णेओ ॥13॥
ऋषभादिजिनवराणां, नामनिरुक्ति गुणानुकीर्तिं च।
कृत्वा अर्चित्वा च, त्रिशुद्धि प्रणामः स्तवो ज्ञेयः ॥13॥
ऋषभ आदि तीर्थंकरों, नाम ग्रहण गुणगान ।
त्रिशुद्धि ये अर्चन मनन, जिनेशस्तवन जान ॥2.27.13.429॥
ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नामो की स्तुति तथा उनके गुणों का कीर्तन करना, गंध-पुष्प-अक्षतादि से पूजा अर्चना करना, मन वचन काया से शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना, चतुर्विशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है।
The second essential duty (Avasyat) of a saint named ‘Chaturvinsati-stavan consists of the etymological explanations (nirukti) of the names of twenty four tirthankar and the obeisance to them with all the purity of mind, speech and body. By means of narrations given or songs sung in their praise (kirtan) and the worship (puja archna) there of with the offerings of incense flower, rice etc. (429)
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दव्वे खेत्ते काले, भावे य कया–वराह–सोहणयं ।
णिंदण–गरहण–जुत्तो मण–वच–कायेण पडिक्कमणं ॥14॥
द्रव्ये क्षेत्रे काले, भावे च कृतापराधशोधनकम्।
निन्दनगर्हणशयुक्तो, मनोवचःकायेन प्रतिक्रमणम् ॥14॥
काल भाव और क्षेत्र द्रव्य, निज निन्दा मन पाप।
काय वचन मन से करे, प्रतिक्रमण का जाप॥2.27.14.430॥
निन्दा से युक्त मन वचन काया द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के दोषों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है।
The self analysis and expiations, before the Head of the order by a saint for his faults (Pratikramana) consists of the purification process which includes confession (Alochana) and condemnation of faults (errors), committed through mind, speech and body as regards his conduct as a full vower. (430)
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अलोचनण–णिंदण–गरहणाहिं अब्भुट्ठिओ अकरणाए।
तं भाव–पडिक्कमणं, सेसं पुण दव्वदो भणिअं ॥15॥
आलोचननिन्दनगर्हणाभिः अभ्युत्थितश्चाऽकरणाय ।
तद् भावप्रतिक्रमणं, शेषं पुनर्द्रव्यतो भणितम् ॥15॥
आलोचनादि कर फिर न, करने का संकल्प।
भाव प्रतिक्रमण यही, शेष द्रव्य के विकल्प ॥2.276.15.431॥
स्व आलोचना के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने में उद्यत साधु के भाव-प्रतिक्रमण होता है। शेष सब तो द्रव्य-प्रतिक्रमण है।
It after having confessed, blamed and condemned an offence committed by him (a monk) makes resolve not to repeat this offence in the future; it is a real repentance on his parteverything else done in this connection constitutes but a formal repentance. (431)
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मोत्तूण वयण–रयणं, रागादी भाव–वारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ॥16॥
मुक्त्वा वचनरचनां, रागादिभाववारणं कृत्वा।
आत्मानं यो ध्यायति, तस्य तु भवतीति प्रतिक्रमणम् ॥16॥
शाब्दिक रचना छोड़, कषायादि कर त्याग।
आत्मध्यान करता वही, ले प्रतिक्रमण विराग ॥2.27.16.432॥
वचन-रचना मात्र को त्याग कर जो साधु रागादि भावों को दूर कर आत्मा को ध्याता है, उसी के पारमार्थिक प्रतिक्रमण होता है।
A monk who meditates upon his soul after renunciation of attachment and other passions, refraining from talking about them, practises repentance in the true sense. (432)
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झाण–णिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्व–दोसाणं ।
तम्हा दु झाण– मेव हि, सव्व–दिचारस्स पडिकमणं ॥17॥
ध्याननिलीनः साधुः, परित्यागंक करोतिसर्वदोषाणाम्।
तस्मात् तु ध्यानमेव हि, सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ॥17॥
ध्यानलीन साधु रहे, सब दोषों को मार।
ध्यान वही सर्वोच्च है, अतिचार प्रतिकार ॥2.27.17.433॥
ध्यान मे लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है। इसलिये ध्यान ही समस्त दोषों का प्रतिक्रमण है।
A monk who becomes absorbed in meditation renounces all faults; therefore meditation alone is real repentance for all transgressions. (433)
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देविस्सियणियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
जिणगुणचिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुवसिग्गो॥18॥
उैवसिकनियमादिषु, यथोक्तमानेन उक्तकाले।
जिनगुणचिन्तनयुक्तः, कायोत्सर्गस्तपनुविसर्गः ॥18॥
जिनगुण का चिन्तन करे, उपयुक्त समय तक ध्यान ।
तन मोह का त्याग करे, कायोत्सर्ग महान ॥2.27.18.434॥
उपयुक्त काल (27 श्वासोच्छवास ) तक जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है।
At the time of daily ceremonials etc. the renunciation of attachment for one’s own body at the prescribed time, for the prescribed period (for a period of 27 breathings or some other appropriate period) and with one’s mind concentrated on the virtuous qualities of Jinas this is what constitutes kayotsarga (an immobile state of body). (434)
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जे केइ उवसग्गा, देव–माणुस–तिरिक्खऽचेदणिया।
ते सव्वे अधिआसे, काओसग्गे ठिदो संतो ॥19॥
ये केचनोपसर्गा, देवमानुष–तिर्यगचेतनिकाः।
तान्सर्वानध्यासे, कायोत्सर्गे स्थितः सन् ॥19॥
चेतन या अचेतन कृत, हो कोई उपसर्ग।
हर बाधा सहता श्रमण, जो स्थित कायोत्सर्ग ॥2.27.19.435॥
कायोत्सर्ग में स्थित साधु देवकृत, मनुष्यकृत,तिर्थञ्चकृत तथा अचेतनकृत होने वाले समस्त उपसर्गो (आपत्तियों) को समभावपूर्वक सहन करता है।
While performing the kayotsarga one ought to face patiently all the obstacles that might be placed in one’s way by a god, a man, an animal, or by the inanimate nature. (435)
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मोत्तूण–सयल–जप्प–मणागय–सुह–मसुह–वारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि, पंचक्खाणं हवे तस्स ॥20॥
मुक्त्वा सकलजल्पम–नागतशुभाशुभनिवारणं कृत्वा।
आत्मानं यो ध्यायति, प्रत्याख्यानं भवेत् तस्य ॥20॥
तज कर वचन विकल्प सब, शुभो–अशुभ अंजान।
आत्मा को ध्याता रहे, अवश्य प्रत्याखान ॥2.27.20.436॥
समस्त वाचनिक विकल्पों को त्याग करके तथा अज्ञात शुभ-अशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को ध्याता है, उसके प्रत्याख्यान नामक आवश्यक होता है।
He who having given up all sorts of talking about and having detached himself from all future thought activities, good and evil; meditates upon his soul, practises renunciation of future evil acts, pratyakhyana in a true sense. (436)
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णिय–भावं णवि मुच्चइ, परभावं णेव गण्हए केइं।
जाणदि पस्सदि सव्वं, सोहं इदि चिंतए णाणी॥21॥
निजभावं नापि, मुञ्चति, परभावं नैव गृह्णाति कमपि।
जानाति पश्यति सर्वं, सोऽहम् इति चिन्तयेद् ज्ञानी ॥21॥
जो निज भाव को नही छोड़ता और किसी भी पर भाव को ग्रहण नही करता तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, वह परम तत्त्व “मैं” ही हूँ। आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसा चिंतन करता है।
That, which never gives up its own nature, that which neverassumes another one’s nature, that which knows and sees everything whatsoever is `I’. Thus should be the meditation of an intelligent person. (437)
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जं किंचि मे दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे।
सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥22॥
यत्किंचिन्मे दुश्चरित्रं, सर्वं त्रिविधेन विसृजामि।
सामायिकं तु त्रिविधं, करोमि सर्वं निराकारम् ॥22॥
मेरा जो दुश्चरित्र है, त्रिविध करता त्याग।
निर्विकल्प हो सामयिक, सबसे मिटता राग ॥2.27.22.438॥
वह ऐसा भी विचार करता है कि जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उस सबको मैं मन वचन कायपूर्वक तजता हूँ और निर्विकल्प होकर त्रिविध सामायिक करता हूँ।
He also thinks; “I fully renounce all my wrong/evil conduct from mind speech and body; and resort to (adopt) threefold equanimity of mind, speech and body (trividha-samayik) in a desire-less manner. (438)
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