२५. व्रतसूत्र
अहिंसा सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गह च ।
पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विउ ॥1॥
अहिंसा सत्यं चास्तेनकं च, ततश्चाब्रह्मापरिग्रहं च।
प्रतिपद्य पञ्चमहाव्रतानि, चरति धर्म जिनदेशितं विदः ॥1॥
सत्य अहिंसा ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह व अस्तेय।
पाँच महाव्रत ग्रहण हो, जिन धरम का ध्येय ॥2.25.1.364॥
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके विद्वान मुनि जिन उपदेश अनुसार धर्म का आचरण करे।
Awise monk, after adopting the five great vows of non-violence, truthfulness, nonstealing, celibacy and non-possessiveness, should practise the religion preached by the Jina. (364)
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णिस्सल्लस्सेव पुणो, महव्वदाइं हवंति सव्वाइं ।
ंवदमुवहम्मदि तीहिं दु, णिदाणमिच्छत्तमायाहिं ॥2॥
निःशल्यस्यैव पुनः, महाव्रतानि भवन्ति सर्वाणि।
व्रतमुपहन्यते तिसृभिस्तु, निदान–मिथ्यात्व–मायाभिः ॥2॥
तीन शूल व्रत घात करे, मिथ्या मोह निदान।
शूल हटे महाव्रत रहे, जिन का धरम विधान ॥2.25.2.365॥
निदान (पाने की इच्छा), मिथ्यात्व (ग़लत धारणा) और माया, इन तीन कारणों से ही व्रत निष्फल होते है। इन तीन शूलों को निकालने से ही महाव्रत का पालन होगा।
A monk, who is free from the thorns of character (salya) really observes (five) great vows; the vows become ineffective due to three thorns of character, i. e., desire for worldly return for one’s good acts, wrong faith and deceit. (365)
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अगिणअ जो मुक्खसुहं, कुणइ निआणं असारसुहहेउं ।
सो कायमणिकएणं, वेरुलियमणिं पणासेइ ॥3॥
अगणयित्वा यो मोक्षसुखं, करोति निदानमसारसुखहेतोः।
स काचमणिकृते, वैडूर्यमणिं प्रणाशयतिं ॥3॥
मोक्षसुख को त्याग, तुच्छ, सुख का करे निदान।
लेकर टुकडे काँच के, माणिक का प्रतिदान ॥2.25.3.366॥
जो व्रती मोक्ष सुख की उपेक्षा करके भौतिक सुख प्राप्ति की अभिलाषा करता है वो काँच के टुकड़े के लिये असली मणि गँवाता है।
He, who harbours desire for worthless worldly pleasures and disregard for bliss of emancipation, is like a person who destroys a (real) gem for a (glittering) piece of glass. (366)
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कुल–जोणि–जीव–मग्गण–ठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं ।
तस्सा–रंभ–णियत्तण–परिणामो होइ पढम–वदं ॥4॥
कुलयोनिजीवमार्गणा–स्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम्।
तस्यारम्भनिवर्तनपरिणामोभवति प्रथमव्रतम् ॥4॥
कुल योनि जीव मार्गणा, जीवों को पहचान ।
रहे निवृत आरम्भ से, व्रत अहिंसा जान ॥2.25.4.367॥
कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि में जीवों को जानकर उनसे सम्बन्धित आरम्भ से निवृत्तिरूप परिणाम प्रथम अहिंसाव्रत है।
The first vow of non violence consists of thought natures of (internal) retirement from the activities, concerned with the living beings, after having been acquainted with their families, and Margana sthans etc. Mental state of refrainment from killing living beings after having knowledge of them in respect of their species of-birth, place-of-birth, peculiarities and (marganasthana) this is called the first vow (viz, non-killing). (367)
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सव्वेसि–मासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं ।
सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु ॥5॥
सर्वेषामाश्रमाणां, हृदयं गर्भो वा सर्वशास्त्राणाम् ।
सर्वेषां व्रतगुणानां, पिण्डः सारः अहिंसा हि ॥5॥
सब आश्रम की जान हैं, सब शास्त्रों का सार।
व्रतों गुणों का पिण्ड है, अहिंसा मुख्य विचार ॥2.25.5.368॥
अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य, सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत सार है।
Non violence is the heart of all ashramas mystery of all the scriptures and the quint essence essence of all vows and attributes. (368)
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अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जई वा भया ।
हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए ॥6॥
आत्मार्थ परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् ।
हिंसकं न मृषा ब्रूयात्, नाप्यन्यं वदापयेत् ॥6॥
खुद या औरों के लिये, भय या क्रोध विचार ।
हिंसक मिथ्या वचन नहीं, यही सत्यव्रत सार॥2.25.6.369॥
स्वयं अपने लिये या दूसरों के लिये क्रोध या भय आदि के वश में होकर हिंसात्मक असत्यवचन न तो स्वयं बोलना चाहिये और न दूसरों से बुलवाना चाहिये। यह दूसरा व्रत ‘सत्यव्रत’ है॥
One should not speak or excite others to speak harmful falsewords, either in the interest of oneself or of another, through anger or fear. (369)
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गामे वा णयरे वा रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुयादि गहण–भाव, तिदिय–वदै होदि तस्सेव ॥7॥
ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षित्वा परमार्थम् ।
यो मुञ्चति ग्रहणभावं, तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ॥7॥
गाँव नगर या जंगल में दूजे का हो माल ।
ग्रहण भाव रखना नहीं, तीजे..व्रत की चाल ॥2.25.7.370॥
ग्राम, नगर या वन में दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव त्याग देनेवाले साधु के तीसरा अचौर्य व्रत होता है।
He, who desists from a desire to take anything belonging to others, on seeing it lying in a village or town or forest, observes the third vow of non-stealing. (370)
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चित्तमंत–मचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं।
दंत–सोहण–मेत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया ॥8॥
चित्तवदचित्तवद्वा, अल्पं वा यदि वा बहु (मूल्यतः) ।
दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ( न गृह्णान्ति) ॥8॥
चेतन रहे अचेतना, अल्प–अधिक उपहार ।
दाँत साफ़ की सींक भी, संत न करे स्वीकार ॥2.25.8.371॥
सचेतन या अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक की दाँत साफ़ करने की सींक तक भी साधु बिना दिये ग्रहण नही करते।
The saint does not take (or accept) any things-whether it be animate or unanimate and large or small-without that having been given (to the saint) by its owner. He does not take even a tooth pick, in the like manner. (371)
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अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी।
कुलस्स भूमिं जाणिता, मियं भूमिं परक्कमे ॥9॥
अतिभूमिं न गच्छेद् गोचराग्रगतो मुनिः।
कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रमेत् ॥9॥
वर्जित भूमि भ्रमण नहीं, मुनि भिक्षा प्रस्थान।
कुल भूमि का ज्ञान रहे, मित भूमिही स्थान॥2.254.9.372॥
गोचरी लिए जाने वाले मुनि को वर्जित भूमि में प्रवेश नहीं करना चाहिये। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि तक ही सीमित रहना चाहिये।
The saint, who goes for begging alms (food), should not enter into the prohibited area; and in case the area concerned belongs to his family, he should go in a limited part thereof, only. (372)
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मूल–मेय–महम्मस्स, महा–दोस–समुस्सयं।
तम्हा मेहुण–संसग्ंगि, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥10॥
मूलम् एतद् अधर्मस्य, महादोषसमुच्छयम्।
तस्मात् मैथुनसंसर्गं, निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति णम् ॥10॥
सम्भोग मूल अधर्म का, दोष भयंकर जान।
वर्जन इस संसर्ग का, ब्रह्मचर्य सम्मान ॥2.25.10.373॥
मैथुन-संसर्ग अधर्म का मूल है, महान दोषों का समूह है। इसलिये ब्रह्मचर्य व्रती निर्ग्रन्थ साधु मैथुन सेवन का सर्वथा त्याग करते है ।
Sexual contact (maithun-sansarg) is the root of all (irreligious conduct/wrongs). It is the sum total (samuga/collection) of all the vices (dosa). Hence, the possessionless saints, who take the vow of celibacy, totally renounce sexual indulgence (maithun sevan/unchastity). (373)
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मादु–सदा–भगिणीव य, दट्ठणित्थि–त्तियं च पडिरूवं ।
इत्थि–कहादि–णियत्ति, तिलोय–पुज्जं हवे बंभं ॥11॥
मसतृसुताभगिनीमिव च, दृष्टवा स्त्रीत्रिकं च प्रतिरूपम्।
स्त्रीकथादिनिवृत्ति–स्त्रिलोकपूज्यं भवेद् ब्रह्म ॥11॥
माता पुत्री बहन हैं, स्त्री का हर इक रूप।
वर्जित है नारी कथा, ब्रह्मचर्य प्रारूप॥2.25.11.374॥
वृद्धा, बालिका और युवती स्त्री के इन तीन प्रतिरुपों को देखकर उन्हें माता, पुत्री और बहन के समान मानना तथा स्त्री कथा से निवृत्त होना ब्रह्मचर्य व्रत है। यह व्रत तीनों लोकों में पूज्य है।
The fourth vow of celibacy (Brahmacarya) consists of treating the old, young and adolescent (juvenete) women as mothers, sisters and daughters; and keeping one self away from the talks about women (stri-katha). This vow of celibacy commands respect (is worshipped) through all the three universes. (374)
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सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्ख–भावणा–पुव्वं।
पंचम–वद–मिदि भणिदं, चारित्त–भरं वहंतस्स ॥12॥
सर्वेषां ग्रन्थानां, त्यागो निरपेक्षभावनापूर्व्वम्।
पंचमव्रतमिति भणितं, चारित्रभरं वहतः ॥12॥
सभी वस्तुएँ त्याग कर, निरपेक्ष मन भाव ।
अंदर बाहर हर तरह, अपरिग्रह व्रत स्वभाव ॥2.25.12.375॥
निरपेक्षतापूर्वक चारित्र का भारवहन करने वाले साधु का बाह्यभ्यंतर, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना, पाँचवा परिग्रह-त्याग नामक महाव्रत कहा जाता है।
The fifth great vow for monks, who are followers of right conduct, is renunciation of attachments for all things with a dispassionate mind. (375)
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किं किंचण त्ति तक्कं, अपुणब्भव–कामिणोध देहे वि ।
संग त्ति जिणवरिंदा, णिप्पडिकम्मत्त–मुद्दिट्ठा ॥13॥
किं किंचनमिति तर्कः, अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि।
संग इति जिनवरेन्द्रा, निष्प्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ॥13॥
परिग्रह है यह देह भी, कहे देव अरहन्त ।
फिर तो परिग्रह अन्य के, संदेहों का अन्त ॥2.25.13.376॥
जब भगवान अरहंतदेव ने मोक्ष के अभिलाषी को ‘शरीर भी परिग्रह है’ कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है।
Lord Arihanta deva has advised to, those who want to attain salvation, to ignore body, by asserting “Body is also a possession” in view of this, there is no necessity of any further argument (in support of non possession). (376)
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अप्पडिकुट्ठं उवधिं, अपत्थ–णिज्जं–असंजद–जणेहिं ।
मुच्छादि–जणण–रहिदं, गेण्हुदु समणो जदि वि अप्पं ॥14॥
अप्रतिक्रुष्टमुपधि–मप्रार्थनीयमसंयतजनैः।
मूर्च्छादिजननरहितं, गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ॥14॥
जो वस्तु अनिवार्य है, जनता को ना ग्राह्य।
उत्पन्न रके न मोह को, वस्तू वही है ग्राह्य॥2.25.14.377॥
फिर भी जो अनिवार्य है, दूसरों के काम की नही है, ममत्व पैदा करने वाली नही है ऐसी वस्तु ही साधु के लेने योग्य है। इससे विपरीत अल्पतम परिग्रह भी उनके लिये उचित नही है।
A monk can keep only such things which are necessary for the observance of vratas and are not desired by worldly people and are incapable of creating any attachment; anything that may create even a slight attachment is unacceptable to a monk. (377)
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आहारेव विहारे, देसं कालं समं खमं उवधि।
जाणित्ता ते समणो, वट्ठदि जदि अप्पलेवी सो ॥15॥
आहारे वा विहारे, देशं कालं श्रमं क्षमम् उपधिम् ।
ज्ञात्वा तान् श्रमणः, वर्तते यदि अल्पलेपी सः ॥15॥
देश, काल, श्रम, शक्ति, पद या आहार–विहार।
ध्यान श्रमण इसका रखे, अल्प बंध का भार ॥2.25.15.378॥
आहार अथवा विहार में देश, काल, श्रम, अपनी सामर्थ्य तथा उपाधि को जानकर श्रमण यदि अपना बर्ताव रखता है तो उसे अल्प बंधन ही होता है।
If in connection with his eating and touring, a monk acts taking into consideration the place, time, needed labour, his own capacity, requisite implements; there would be little bondage of karmas. (378)
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न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइण।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥16॥
न सः परिग्रह उक्तो, ज्ञातपुत्रेण तायिना ।
मूर्च्छा परिग्रह उक्तः, इति उक्तं महर्षिणा ॥16॥
परिग्रह सत् परिग्रह नहीं, महावीर का ज्ञान।
परिग्रह से जब मोह हो, असल परिग्रह मान ॥2.25.16.379॥
भगवान महावीर ने वस्तुगत परिग्रह को ही परिग्रह नहीं कहा है। उन महर्षि ने परिग्रह से मोह की मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है।
Jnataputra (Bhagavan Mahavira) has said that an object itself is not possessiveness; what that great saint has said is that attachment to an object is possessiveness. (379)
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सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए ।
पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए ॥17॥
सन्निधिं च न कुर्वीत, लेपमात्रया संयतः।
पक्षी पत्रं समादाय, निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥17॥
पास नहीं कुछ भी रखे, लेशमात्र भी माल।
पक्षी सा निरपेक्ष रहे, संयम संग्रह पाल ॥2.25.17.380॥
साधु लेशमात्र भी संग्रह न करे। पक्षी की तरह संग्रह से निरपेक्ष रहते हुए केवल संयमोपकरण के साथ विचरण करे।
A monk should not collect anything, not even as little as a particle of food sticking to his alms-bowl, as a bird flies away only with its wings so he should wander alone without having any means. (380)
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संथार–सेज्जासण–भत्तपाणे, अप्पिछया अइलाभे विसंते ।
जो एव–मप्पाण–भितोसएज्जा, संतोसपाहन्न–रए स पुज्जो ॥18॥
संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि, अल्पेच्छता अतिलाभेऽपि सति ।
एवमात्मानमभितोषयति, सन्तोषप्राधान्यरतः स पूज्यः ॥18॥
शय्यासन आहार की, इच्छा नहि श्रीमान ।
ग्रहण अधिक करता नहीं, उसी मुनि का मान ॥2.25.18.381॥
शय्या, आसन और आहार का अति लाभ होने पर भी जो अल्प इच्छा रखते हुए अल्प से अपने को संतुष्ट रखता है वह साधु पूज्य है।
Even when blankets, beds, seats, food and drink are available in plenty, a monk who desires only a little and remains selfcontented is worthy of adoration. (381)
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अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए।
आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि ण पत्थए ॥19॥
अस्तंगते आदित्ये, पुरस्ताच्चानुद्गते।
आहारमादिकं सर्वं, मनसापि न प्रार्थयेत् ॥19॥
सूर्योदय के पूर्व या, सूर्य गमन पश्चात।
साधु न भोजन भावना, हो सम्मुख जब रात ॥2.25.19.382॥
परिग्रहरहित समरसी साधु को सूर्यास्त के पश्चात व सूर्योदय के पूर्व किसी भी प्रकार के आहार की इच्छा मन में नही लानी चाहिये।
Amonk should not desire even in his mind for food, after sun-set and before sun-rise. (382)
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संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा।
जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे? ॥20॥
सन्ति इमे सूक्ष्माः प्राणिनः, त्रससा अथवा स्थावराः।
यान् रात्रावपश्यन्, कथम् एषणीयं चरेत् ॥20॥
त्रस अथवा हो स्थावरा, जीवन सूक्ष्म हज़ार।
अंधकार में दिखे नहीं, करे न मुनि आहार ॥2.25.20.383॥
इस धरती पर ऐसे त्रस और स्थावर सूक्ष्म जीव सदैव व्याप्त रहते है जो रात्रि को अंधकार में दीख नही पड़ते। अतः ऐसे समय में साधु के द्वारा शुद्ध आहार की कल्पना कैसे हो सकती है?
There are innumerable subtle living beings, mobile as well as immobile, which are invisible in night; how can a monk move around for food at such time? (383)
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