२४. श्रमणधर्म सूत्र
समणोत्ति संजदो त्ति य, रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागो त्ति ।
णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतो त्ति ॥1॥
श्रमण इति संयत इति च, ऋषिर्मुनिः साधुः इति वीतराग इति।
नामानि सुविहितानाम् अनगारो भदन्तः दान्तः इति ॥1॥
श्रमण, संयत, ऋषि कहे, मुनि साधु वीतराग ।
या अनगार भदन्त कहे, होय शास्त्र अनुराग ॥2.24.1.336॥
श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त ये सब शास्त्र अनुसार आचरण करने वालों के नाम है।
Sramana (Jain recluses), samyata (lone, who has controlled his senses), Rishi (saint with miraculous powers), Muni (Saint with clairvoyance with telepathic knowledge),sadhu (saints of long standing), vitaraga (nonattach saint), Anagar (houseless ascetic), (monk), Dhanta all these terms indicate persons, who follow conduct as prescribed by scriptures. (336)
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सीह–गय–वसह–मिय–पसु, मारुद–सूरुवहि–मंदरिंदु–मणी ।
खिदि–उरगंवर–सरिसा, परम–पय–विमग्गया साहू ॥2॥
सिंह–गज–वृषभ–मृग–पशु, मारुत–सूर्योदधि–मन्दरेन्दु–मणयः।
क्षिति–उरगाम्बरसदृशाः, परमपद–विमार्गकाः साधवः ॥2॥
सिंह गज वृष मृग पशु सिंधु, मेरु, सूर्य समान।
चन्द्र मणि नभ सर्प धरा, लक्ष्य मोक्ष ही मान ॥2.24.2.337॥
सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब साधु परमपद मोक्ष की खोज में रहते हैं ।
Monks who are in search of the supreme path of liberation, resemble a lion (in fearlessness), an elephant (in dignity), a bull (in strength), a deer (in uprightness), beast (in freedom from attachment),the wind (in being companionless), the sun (in brilliance), an ocean (in serenity), the Mandara Mountain (in firmness) the moon (in coolness), a diamond (in lustre), the earth (in patience), a serpent (in being houseless) and the sky (in not being dependent). (337)
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बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो ।
न लवे असाहुं साहुत्ति, साहुं साहु त्ति आलवे ॥3॥
बहवः इमें असाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः।
नलपेदसाधुं साधुः इति साधुं साधुः इति आलपेत् ॥3॥
साधु ना, जग साधु कहे, साधु समझे लोक ।
साधु को ही साधु कहो, मिले नहीं परलोक ॥2.24.3.338॥
ऐसे भी बहुत से असाधु है जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है। लेकिन असाधु को साधु नही कहना चाहिये। साधु को ही साधु कहना चाहिये।
In this world, there are many ill-behaved monks who are called monks; a pseudo-monk should not be called a monk; but a true monk alone must be called a monk. (338)
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नाणं–दंसण–संपन्न, संजमे य तवे रयं ।
एवं गुण–समाउत्तं, संजयं साहु–मालवे ॥4॥
ज्ञानदर्शनसम्पन्नं, संयमे च तपसि रतम्।
एवंगुणसमायुक्तं, संयतं साधुमालपेत् ॥4॥
ज्ञान दर्शन से संपन्न, संयम तप संलीन ।
ऐसे गुण से युक्त हो, साधु उसको चीन ॥2.24.4.339॥
ज्ञान और दर्शन से संपन्न, संयम और तप में लीन संयमी को ही साधु कहना चाहिये।
A person who is endowed with (Right) knowledge and (Right) Faith, is engaged in self-restraint and penance, and is endowed truly with all these virtues, should be called a monk. (339)
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न वि मुण्डिएण समणो, न आंकारेण बम्भणो ।
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥5॥
नाऽपि मुण्डितेन श्रमणः, न ओंकारेण ब्राह्मणः ।
न मुनिररण्यवासेन, कुशचीरेण न तापसः ॥5॥
सिर मुंडावे श्रमण नहीं, ब्राह्मण ना ओंकार ।
वन बसने से मुनि नहीं, तापस न कुशचीर ॥2.24.5.340॥
केवल सिर मुंडाने से कोई साधु नही हो जाता। ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नही हो जाता। अरण्य में रहने से कोई मुनि नही होता। भेष बदलने से कोई तपस्वी नही होता।
Aperson does not become a monk by merely shaving his head, a Brahmin by repeating the Omkara mantra, a monk by residing in a forest, nor a hermit by wearing garments woven of darbha grass. (340)
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समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो ।
नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥6॥
समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।
ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापसः ॥6॥
समता से बनते श्रमण, ब्राह्मण ब्रह्म आचार ।
ज्ञान से वह मुनि बने, तपस्वी तप से पार॥2.24.6.341॥
समता से साधु, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है।
A person becomes a Sramana by equanimity, a Brahmin by his celibacy, a Muni by his knowledge and an ascetic by his austerities. (341)
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गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिणहाहि साहूगुण मुंचऽसाहू ।
वियाणिया अप्पग–मप्पएणं, जो राग–दोसेहिं समो स पुज्जो ॥7॥
गुणैःसाधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधुगुणान् मुञ्चाऽसाधु (गुणान्) ।
विजानीयात् आत्मानमात्मना, यः रागद्वेषयोः समः स पूज्यः ॥7॥
साधु, न साधु–गुण कहे, साधु गुण स्वीकार ।
राग द्वेष सम, पूज्य वही, करता आत्म विचार ॥2.24.7.342॥
गुणों से साधु और अगुणों से असाधु होता है। अतः साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए जो राग द्वेष में समभाव रखता है वही पूज्य है।
A person becomes a monk by his virtues and a pseudo-monk by absence of virtues; therefore master all the virtues of a monk and be free from all the vices of a pseudo-monk; conquer your self through the self. He who possesses equanimity in the face of attachments and hatred is worthy of veneration. (342)
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देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसाय–संजुत्ता।
अप्प–सहावे सुत्ता, ते साहू सम्म–परिचत्ता ॥8॥
देहादिषु अनुरक्ता, विषयासक्ताः कषायसंयुक्ताः ।
आत्मस्वभावे सुप्ता, ते साधवः सम्यक्त्वपरित्यक्ताः ॥8॥
देह विषय अनुरक्त रहे, छूटे नहीं कषाय ।
सुप्त हो साधु आत्म से, सम्यक्त्व नहीं पाय ॥2.24.8.343॥
देहादि में अनुरक्त, विषय व कषाय से युक्त तथा आत्मस्वभाव से सुप्त साधु सम्यक्त्व से शून्य होते हैं।
Those monks who are attached to their body, addicted to sensual pleasures, possessed of passions, and asleep in respect of their own nature are certainly devoid of righteousness. (343)
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बहुं सुणेई कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छइ।
न य दिट्ठं सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥9॥
बहु श्रृणोति कर्णाभ्यां, बहु अक्षिभ्यां प्रेक्षते।
न च दृष्टं श्रुतं सर्व, भिक्षुराख्यातुमर्हति ॥9॥
बातें कानों से सुने, देख़े बात अनेक।
मगर भिक्षु सब देख–सुन, भाव नहीं अतिरेक ॥2.24.9.344॥
भिक्षा के लिये निकला साधु बहुत सी बातें सुनता है और देखता है पर सब कुछ देख सुन कर भी उदासीन रहता है।
A monk hears much through his ears and sees much with his eyes; but he remains indifferent towards everything that he has seen and heard. (344)
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सज्झाय–झाण–जुत्ता रत्तिं ण सुवंति ते पयामं तु।
सुत्तत्थं चिंतता णिद्दाय वसं ण गच्छंति ॥10॥
स्वाध्यायध्यानयुक्ताः, रात्रौ न स्वपन्ति ते प्रकामं तु।
सूत्रार्थ चिन्तयन्तो, निद्राया वशं न गच्छन्ति ॥10॥
नींद जरा सी रात को, ज्ञान ध्यान तल्लीन।
सूत्रों का चिंतन करे, ना हो नींद अधीन ॥2.24.10.345॥
स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधु रात में बहुत नहीं सोते हैं। सूत्र और अर्थ का चिन्तन करते रहने के कारण वे निन्द्रा के वश नही होते।
The monks do not sleep long at night as they are engaged in studying of scriptures and meditation. They do not fall asleep as they are always reflecting on the meaning of precepts. (345)
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निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो ।
समो य सव्वभूएसू, तसेसु थावरेसु य ॥11॥
निर्ममो निरहंकारः, निःसंगस्त्यक्तगौरवः।
समश्च सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च ॥11॥
निरहंकारी नहीं ममत्व, निस्संग गारव त्याग।
सर्व जीव सम भाव हो, रखे न साधु राग॥2.24.11.346॥
साधु ममतारहित, निरहंकारी, निस्संग, गारव का त्यागी तथा सभी जीवों के प्रति समदृष्टि रखता है।
The (real) monks are free from attachment, selfconceit, companionship and egotism, they treat impartially and equally all living beings, whether mobile or immobile. (346)
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लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा ।
समो निन्दा–पसंसासु, तहा माणा–वमाणओ ॥12॥
लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा।
समो निन्दाप्रशंसयोः, तथा मानापमानयोः ॥12॥
लाभ हानि सुख दुख सदा, जिये–मरे सम जान ।
हो निंदा या प्रशंसा, नहीं मान अपमान ॥2.24.12.347॥
साधु लाभ और हानि में, सुख और दुख में, जीवन और मरण में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है।
A real monk maintains his equanimity, in success and failure, happiness and misery, life and death, condemnation and praise and honour and disnhonour. (347)
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गारवेसु कसाएसु, दंड–सल्ल–भएसु य।
नियत्तोहास–सोगाओ, अनियाणो अबन्धणो ॥13॥
गौरवेभ्यः कषायेभ्यः, दण्डशल्य भयेभ्यश्च।
निवृत्तो हासशोात्, अनिदानो अबन्धनः॥13॥
निदातबन्धन रहित वहीं, गारवकषाय मुक्त ।
दण्ड, शल्य भय रहित हो,हास्य शोक निवृत्त ॥2.24.13.348॥
साधु गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त तथा निदान और बन्धन से रहित होता है।
He is thoroughly unaffected by honour, passions, punishment, affliction and fear; he is undisturbed and unbound and free from laughter and sorrow. (348)
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अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ ।
वासी चन्दण–कप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥14॥
अनिश्रित इहलोके, परलोकेऽनिश्रितः।
वासीचन्दकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा ॥14॥
आसक्ति इस लोक नहीं, अनासक्त परलोक।
लेप चंदन, शूल लगे, राग रहे ना शोक ॥2.24.14.349॥
वह लोक और परलोक दोनों से अनासक्त होता है। काँटेसे छीले या चंदन का लेप लगे, आहार मिले या न मिले, सम भाव रहता है
He is neither interested in this world nor in the next. He is indifferent to food or fasts. He does not mind whether his limb is smeared with Sandal paste or cut off with an axe. (349)
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अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवे।
अज्झप्प–ज्झाण–जोगेहिं, पसत्थ–दम–सासणे ॥15॥
अप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः, सर्वतः पिहितास्रवः ।
अध्यात्मध्यानयोगैः, प्रशस्तदमशासनः ॥15॥
है अनेक आस्रव दर, साधु करें निरोध।
अध्यात्मध्यान योग से, करे प्रशस्त सुबोध॥2.24.15.350॥
ऐसे साधु किसी भी तरी़के से आने वाले आस्रवों का निरोध करते हैं। अध्यात्म संबंधी ध्यान और योगों से प्रशस्त संयम शासन में लीन हो जाते हैं।
Such a monk prevents the influx of Karmas through inauspicious doors (i.e., ways) of every kind and becomes engrossed in his rigorous self-contor and discipline through his spiritual meditation. (350)
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खुह पिवा दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरई भयं।
एहियासे अव्वहिओ, देहे दुक्खं महाफलं ॥16॥
क्षुधं पिपासां दुःशय्यां, शीतोष्णं अरतिं भयम् ।
अतिसहेत अव्यथितः देहदुःखं महाफलम् ॥16॥
भूख प्यास सर्दी गर्मी, भय, सेज, अरतिभाव।
महाफलदायक देहदुख, साधु सहें समभाव॥2.24.16.351॥
भूख-प्यास, पथरीली शय्या, ठंडी-गर्मी, भय आदि को बिना दुखी हुए सहन करता है। दैहिक दुखोें को समभावपूर्वक सहन करना महाफलदायी होता है।
Without any pain one must bear hunger, thirst, uncomfortable ground for sleep, cold, heat, uneasiness and fear. Mortification of body is most fruitful. (351)
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अहो निच्चं तवोकम्मं, सव्वबुद्धेहिं वण्णियं ।
जाय लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं ॥17॥
अहो नित्यं तपःकर्म, सर्वबुद्धैर्वर्णितम्।
यावल्लज्जासमा वृत्तिः, एकभक्तं च भोजनम् ॥17॥
सतत तपश्चर्या रहे, निज संयम यदि इष्ट।
एकमुक्ति का मार्ग, वह ज्ञानीजन उपदिष्ट॥2.24.17.352॥
सभी ज्ञानियों ने ऐसे तप का उपदेश दिया है कि साधु संयम के साथ दिन में केवल एक बार भोजन करे।
Oh: all learned men have said that in order to observe penance constantly, it is necessary always to maintain selfrestraint and to take food only once a day. (352)
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किं काहदि वणवासो, काय–किलेसो विचित्त–उववासो।
अज्झयण–मोण–पहुदी, समदा–रहियस्स समणस्स ॥18॥
किं करिष्यति वनवासः, कायक्लेशो विचित्रोपवासः ।
अध्ययनमौनप्रभृतयः, समतारहितस्य श्रमणस्य ॥18॥
काम क्लेष सब व्यर्थ है और कठिन उपवास ।
मौन अध्ययन व्यर्थ सभी, समता का ना वास ॥2.23.18.353॥
समतारहित श्रमण का वनवास, कायाक्लेश, तप, उपवास, अध्ययन और मौन बेकार है।
What is the use of residing in a lonely place, mortification of body, different types of fasting, study of scriptures, keeping silence etc., to a monk who is devoid of equanimity? (353)
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बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए ।
सन्तिमग्गं च बहए, समयं गोयम! मा पमायए ॥19॥
बुद्धः परिनिर्वृतश्चरेः, ग्रामे गतो नगरे वा संयतः ।
शाान्तिमार्ग च बृंहयेः, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥19॥
प्रबुद्ध शांति से करे, ग्राम नगर संवाद।
शांतिमार्ग की वृद्धि कर, गौतम छोड़ प्रमाद ॥2.23.19.354॥
हे गौतम क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर। प्रबुद्ध और उपशान्त होकर संयतभाव से गाँव और नगर में विचरण कर। शान्ति का मार्ग बढ़ा।
The enlightened and desisted monk should control himself; whether he be in a village or a town, and he should preach to all the road of peace; O’Gautama!, be careful all the while. (354)
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न हु जिणे अ़ज़्ज दिस्सई बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए।
संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥20॥
न खलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदर्शितः।
सम्प्रति नैयायिके पथि, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥20॥
‘जिन’ होंगे कल जब नहीं, होंगे विभिन्न वाद।
न्याय मार्ग उपलब्ध है, गौतम छोड़ प्रमाद ॥2.24.20.355॥
भविष्य में लोग कहेंगे कि आजकल ‘जिन’ दिखाई नही देते और जो मार्गदर्शन है वे भी एकमत के नही है। किन्तु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है अतः गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।
In future people will say “No Jinas” are seen these days, while those proclaiming the path of spiritual progress hold divergent views; now being on the right path, O’Gautama! be careful all the while? (355)
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वेसो वि अप्पमाणी, असंजमपएसु वट्टमाणस्स।
किं परियत्तिवेसं, विसं न मारेइ खज्जंतं ॥21॥
वेषोऽपि अप्रमाणः, असंयमपदेषु वर्तमानस्य।
किं परिवर्तितवेषं, विषं न मारयति खादन्तम् ॥21॥
वेश नहीं प्रमाण है, संयमहीन भी पाय।
बदले वेश मरे नहीं? जो जन विष को खाय ॥2.24.21.356॥
संयम मार्ग में वेश प्रमाण नही हैवो तो असंयम लोगों में भी पाया जाता है। क्या वेश बदलने वाले व्यक्ति को खाया हुआ विष नही मारता?
(In the path of Restraint) Dress (apparel/costume) is not evidence; as it is used by (found in) the un-restrain persons also (fictitious persons as well). Does poison nor kill a person, who is disguised (i.e. who has assumed a form, other than his own).(356)
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पच्चयत्थंच लोगस्स, नाणाविह–विगप्पणं।
जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगो लिंगप्पओयणं ॥22॥
प्रत्ययार्थं च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम्।
यात्रार्थं ग्रहणार्थं च, लोके लिङ्गप्रयोजनम्॥22॥
लोक में जो साधु लगे, विकल्प चिन्ह अनेक।
संयम यात्रा के लिये, लोक–विश्वास प्रत्येक ॥2.24.22.357॥
लोक में बताने के लिये वेश आदि की परिकल्पना की गई है। संयम यात्रा के निर्वाह के लिये और “मैं साधु हूँ” इसका बोध रहने के लिये लोक में लिंग (चिन्ह) का प्रयोजन है।
People wear various kinds of dresses to win the confidence of others. A distinguishing mark is useful to a person who is selfrestrained to show the people that he is a monk. (357)
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पासंडी–लिगाणि व, गिहि–लिंगाणि व बहुप्पयाराणि।
घित्तं वदंति मूढा, लिंग–मिणं मोक्ख–मग्गो त्ति॥23॥
पाषंडिलिङ्गानि वा, गृहिलिङ्गानि वा बहुप्रकाराणि ।
गृहीत्वा वदन्ति मूढा, लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति॥23॥
साधु हो या हो गृहस्थ, वेश अनेक प्रकार ।
मूर्ख करे धारण, कहे वेश मोक्ष का द्वार ॥2.24.23.358॥
लोक में साधुओं तथा गृहस्थों के लिये तरह तरह के चिन्ह प्रचलित हैं। जिन्हें धारण कर अज्ञानी कहते हैं कि यह चिन्ह मोक्ष का प्रतीक है।
In the world, various symbols (marks/tokens/linga) have been assigned to various types of saints and house holders. Those who adopt them and assert that such symbols cause salvation are great fools (murha-jana/idiots). (358)
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पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे, अयन्तिए कूडकहावणे वा ।
राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होई य जाणएसु ॥24॥
शुषिरा इव मुष्टिर्यथा स असारः, अयन्त्रितः कूटकार्षापणो वा ।
राढामणिर्वैडूर्यप्रकाशः, अमहार्घकोभवति च ज्ञायकेषु ज्ञेषु ॥24॥
पोली मुट्ठी और सिक्का, खोटापन आधार।
कांच चमके नीलमसा, ज्ञानी कहे निस्सार ॥2.24.24.359॥
जानकारों की दृष्टि में पोली मुट्ठी का, खोटे सिक्के का या हिरे की तरह चमकिली काँच की मणि का कोई मोल नही।
He, who is devoid of strength like a hollow fist, is untested like a false coin and a bead of glass shining like a diamond, will have no respect from the wise who know the truth. (359)
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भावो हि पढम-लिंगं, ण दव्व-लिंग च जाण परमत्थं।
भावो कारण-भूदो, गुण-दोसाणं जिणा बिंति ॥25॥
भावो हि प्रथमलिङ्गं, न द्रव्यलिङ्गंच जानीहि परमार्थम्।
भावः कारणभूतः, गुणदोषाणां जिना ब्रुवन्ति ॥25॥
भावलिंग ही प्रमुख है, द्रव्यलिंग अपरमार्थ।
मूल भाव गुण दोष का, जिन का ये मथितार्थ॥2.24.25.360॥
भाव ही मुख्य चिन्ह है। द्रव्य लिंग परम अर्थ नही है। भाव को ही जिनदेव ने गुण दोषों का कारण कहा है।
Know that it is the mental state and not the dress that is the first distinguishing mark of spirituality. Jinas state that it is the mental state that is the cause of virtues and vices. (360)
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भाव–विसुद्धि–णिमित्तं, बाहिर–गंथस्स कीरए चाओ।
बहिर–चाओ विहलो, अब्भंतर–गंथ–जुत्तस्स ॥26॥
भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः।
बाह्यत्यागः विफलः, अभ्यन्तरग्रन्थयुक्तस्य ॥26॥
भाव शुद्धता के लिये, बाह्य परिग्रह त्याग।
परिग्रही मन में बसा, हो न सफल परित्याग ॥2.24.26.361॥
भावों की शुद्धि के लिये ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है उसका बाह्य त्याग निष्फल है।
Renunciation of external possessions is the cause of mental purity. Renunciation of external possessions is futile if it is not combined with internal resolve of non-attachment. (361)
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परिणामम्मि असुद्धे, गंथे मुंचेइ बाहिरे य जई ।
बांहिर–गंथ–च्चाओ, भाव–विहूणस्स किं कुणइ ॥27॥
परिणामे अशुद्धे, ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यतिः ।
बाह्यग्रन्थत्यागः, भावविहीनस्य कं करोति? ॥27॥
बाह्य परिग्रह त्याग करे, पर अशुद्ध परिणाम।
त्याग नही हित कर सके, भाव शून्य हो काम॥2.24.27.362॥
बाह्य परिग्रह का त्याग कर के अशुद्ध परिणामों में रहता है तो आत्मा भावना से शून्य ऐसे साधु का बाह्य त्याग क्या हित कर सकता है?
If a monk who is of impure mentality renounces all external possessions, what can such renunciation do to one who is devoid of appropriate mental condition? (362)
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देहादि–संग–रहिओ,माण–कसाएहिं सयल–परिचत्तो।
अप्पा–अप्पम्मि रओ स भाव–लिंगी हवे साहू ॥28॥
देहादिसंगरहितः, मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः, स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ॥28॥
ममता ना हो देह की, कण भी रहे न मान।
स्वयंलीन आत्मा रहे, साधु भावलिंग जान ॥2.24.28.363॥
जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में ही लीन है, वही साधु भाव लिंगी है।
One, who is unattached to his body, is entirely free from passions like pride etc. and possessed of a soul which is engrossed in itself, is a real monk. (363)
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