२१.साधनासूत्र
आहारसण–णिद्दा–जयं, च काऊण जिणवर–मएण ।
झायव्वो णियअप्पा, णाऊण गुरु–पसाएण ॥1॥
आहारासन–निद्राजयं, च कृत्वा जिनवरमतेन।
ध्यातव्यः निजात्मा, ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥1॥
जिनवर का आदेश है, कर इन्द्रियां अधीन ।
गुरु से पाकर ज्ञान, फिर हो आत्मा में लीन ॥2.21.1.288॥
जिनदेव के अनुसार आहार, आसन व निद्रा पर विजय प्राप्त कर, गुरु से ज्ञान प्राप्त कर, निज आत्मा का ध्यान करना चाहिये।
One should meditate on one’s soul after acquiring control over his diet, sitting and sleep in accordance with the precepts of Jina, and Knowledge gained by the grace of the preceptor. (288)
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नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णा–णमोहस्स विवज्जणाए ।
रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्तसोक्खं–समुवेइ मोक्खं ॥2॥
ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया।
रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम् ॥2॥
सर्व प्रकाशित ज्ञान से, अज्ञान मोह संहार।
क्षय हो राग–द्वेष का, खुले मोक्ष का द्वार ॥2.21.2.289॥
सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से तथा राग द्वेष के क्षय से जीव मोक्ष को प्राप्त करता है।
The (imperfect) soul attains salvation (Eikant-sukha/pure, unadulterated joy) by virtue of the manifestation of perfect knowledge by the clearance/removal (parihar) of ignorance (Ajnan) and Delusion (Moh) and by the complete destruction annihilation (Kshaya) of attachment and aversion. (289)
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तस्सेस मग्गो गुरु–विद्ध–सेवा, विवजणा बालजणस्स दूरा ।
सज्झाय–एगन्तनिवेसणा च, सुत्तत्थ संचिंतणया धिई य ॥3॥
तस्यैष मार्गो गुरुवृद्धसेवा, विवर्जना बालजनस्य दूरात् ।
स्वाध्यायैकान्तनिवेशना च, सूत्रार्थसंचिन्तनता धृतिश्च॥3॥
मारग है गुरु की सेवा, अज्ञानी से असंग ।
स्वाध्याय सूत्रसुचिंतन, धीरज और निस्संग ॥2.21.3.290॥
गुरु तथा वृद्ध की सेवा, अज्ञानी से दूर, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिंतन करना तथा धैर्य रखना, ये दुखों से मुक्ति के उपाय है। ।
The ways and means of the attainment of freedom from miseries (Duhkha) are service of elderly and respectable persons, keeping away from the company of ignorant people, understanding scriptures; dwelling in solitary places; giving proper thought and attention to aphorisms and their interpretations. (290)
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आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थ बुद्धिं ।
निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥4॥
आहारमिच्छेद् मितमेषणीयं, सखायमिच्छेद् निपुणार्थबुद्धिम्।
निकेतमिच्छेद् विवेकयोग्यं, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥4॥
सात्विक कम भोजन करे, करे समाधी ध्यान ।
तत्व अर्थ साथी निपुण, हो एकांत विधान ॥2.21.4.291॥
समाधि का अभिलाषी तपस्वी सीमित आहार, तत्त्वार्थ में निपुण साथी का साथ और एकान्त में वास करे।
A monk observing the austerities and desirous of equanimity of his mind should partake of limited and unobjectionable (pure) food, should have an intelligent companion well-versed in the
meaning of scriptures and should select a secluded place for his shelter and for meditation. (291)
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हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा ।
न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणंते तिगिच्छगा ॥5॥
हिताहारा मिताहारा, अल्पाहाराः च ये नराः ।
न तान् वैद्याः चिकित्सन्ति आत्मानं ते चिकित्सकाः ॥5॥
जो नर अनुशासित रहे, मितहित अल्पाहार ।
वैद्य चिकित्सा लगे नहीं, अंतस शुद्ध विचार ॥2.21.5.292॥
जो मनुष्य मित व हितकारी आहार करते हैं उन्हें वैद्य की आवश्यकता नही पड़ती है। वे स्वयं चिकित्सक होते है और अन्तर्शुद्धि में लगे रहते हैं।
Persons who take healthy, controlled and less diet do not need physicians to treat them; they are physicians of themselves. (292)
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रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणां ।
दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥6॥
रसा प्रकामं न निषेवितव्याः, प्रायो रसा दीप्तिकरा नराणाम् ।
दीप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति, द्रुमं यथा स्वादुफलमिव पक्षिणः ॥6॥
रस सेवन ज्यादा नहीं, रस करते उन्मत्त ।
काम पीड़ित करे ज्यूँ, पक्षी करे दरख्त ॥2.21.6.293॥
रसों का अधिक सेवन न करे। रस प्रायः उन्मादवर्धक होते है। विषय में लीन व्यक्ति को काम वैसे ही सताता है जैसे फलों से लदे वृक्ष को पक्षी।
One should not take delicious dishes in excessive quantity; for the delicious dishes normally stimulate lust in a person. Persons whose lusts are stimulated are mentally disturbed like trees
laden with sweet fruits frequently tortured with birds. (293)
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विवित्तसेज्जासणजन्तियाणं, ओसमासणाणं दमिइन्दियाणं ।
न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइ ओ वाहिरिवोसहेंहिं ॥7॥
विविक्तशय्याऽसनयन्त्रितानाम्, अवमोऽशनानां दमितेन्द्रियाणाम् ।
न रागशत्रुर्धर्षयति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधैः ॥7॥
शय्यासन या भोज रहेे, इंद्रिय दमन सम्भोग ।
राग द्वेष ना चित्त डसेे, दवा हरे ज्यूँ रोग ॥2.21.7.294॥
जो ब्रह्मचारी है, अल्प आहारी है, इन्द्रियों का दमन किया है उसके चित्त को राग-द्वेष रूपी विकार नही सताते जैसे औषधि से पराजित रोग पुनः नही सताता।
A disease cured by medicine does not reappear; like wise attachment will not disturb the mind of monk who takes a bed or seat in a lonely place, takes little food and has controlled his senses. (294)
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जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढई।
जविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥8॥
जरा यावत् न पीडयति, व्याधिः यावत् न वर्द्धते ।
यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावत् धर्म समाचरेत् ॥8॥
उम्र जब तक हो नहीं, बढ़ा नहीं है रोग ।
तन है सक्षम हर तरह, करे धर्म से योग ॥2.21.8.295॥
जब तक बुढ़ापा और रोग नही सता रहे, धर्माचरण कर लेना चाहिये। अशक्त और असमर्थ इन्द्रियों से धर्माचरण नही हो सकेगा।
One should practice religion well before arrival of old age , because the religious duties can not be performed with weak and infirm sense-organs (295)
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