१३. अप्रमादसूत्र
इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं ।
तं एवमेवं लालप्पमणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए? ॥1॥
इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम्।
तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमादः?॥1॥
मेरा है, मेरा नहीं, करूँ, न करूँ ख़याल ।
क्यूँ आलस में मन रहे, हर लेता है काल ॥1.13.1.160॥
काल हमें कब उठा लेगा यह किसी को नहीं मालूम फिर ऐसी स्थिति में व्यक्ति क्यों आलसी बना रहता है? यह मेरे पास है यह नही है, यह मुझे करना है और यह नहीं करना है, व्यर्थ की बकवास में रह जाता है।
The God of death/ yama may carries away the person anytime. how can one afford to remain careless (apramatt) and keep fondling that this is with me and this is not,this is done by me and this is not. (160)
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सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था ।
तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥2॥
सीदन्ति स्वपताम्, अर्थाः पुरुषाण लोकसारार्थाः।
तस्माज्जागरमाणा, विधूनयत पुराणकं कर्म ॥2॥
ज्ञान सार इस लोक में, सोने मेें बरबाद ।
सतत जागरण से करे, पूर्व कर्म नाशाद ॥1.13.2.161॥
इस जगत में ज्ञान ही सारभूत अर्थ है। जो सोते है उनके वो अर्थ नष्ट हो जाते हैं। अतः सतत जागकर पूर्वर्जित कर्मों को नष्ट कर देना चाहिये।
He who sleeps, his many excellent things of this world are lost unknowingly. Therefore, remain awake all the while and destroy the Karmas, accumulated in the past. (161)
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जागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं च सुत्तया सेया ।
वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥3॥
जागरिका धर्मिणाम्, अधर्मिणां च सुप्तता श्रेयसी।
वत्साधिपभगिन्याः, कथितवान् जिनः जयन्त्याः ॥3॥
नींद अधर्मी को मिलेे, जागे धर्म सुजान ।
वत्सराज की बहन से, कह जयन्ति भगवान ॥1.13.3.162॥
भगवान महावीर ने वत्सदेश के राजा शतानीक की बहन जयन्ती से कहा “धार्मिक का जागना उत्तम है और अधात्मिकों का सोना अच्छा है।”
It is better that the religious-minded should awake and the wicked should sleep; this is what Jina said to Jayanti, the sister of the kings of Vatsadesa. (162)
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सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध–जीवी, न वीससे पण्डिए ासु–पन्ने।
घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारुण्ड पक्खी व चराप्पमत्तो ॥4॥
सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः ।
घोराः मुहूर्त्ता अवलं शरीरम्, भारण्डपक्षीव चरेद् अप्रमत्तः ॥4॥
पण्डित हरपल सजग रहे, सोया हो संसार।
तन दुर्बल, समय कठिन है, भारण्ड सा व्यवहार ॥1.13.4.163॥
ज्ञानी पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे। लापरवाही में विश्वास न करे। समय कठोर है और तन निर्बल है इसलिये भारण्ड पक्षी की तरह सजग विचरण करेें ।
A wise person of sharp intelligence should be awake, even amongst those who sleep; he should not be complacent, because time is relentless and the body is weak, (So) he should ever be vigilant like the fabulous bird (Bharanda). (163)
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पमायं कम्ममहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं ।
तब्भावा–देसओ वावि, बालं पंडिय–मेव वा ॥5॥
प्रमादं कर्म आहु–रप्रमादं तथाऽपरम्।
तद्भावादेशतो वापि, बालं पण्डितमेव ॥5॥
रहते कर्म प्रमाद मेें, सजग अकर्म विचार ।
अज्ञानी मदहोश रहे, ज्ञानी होश संवार ॥1.13.5.164॥
प्रमाद (आलस/लापरवाह/मदहोश) में कर्म के द्वार (आस्त्रव) खुले रहते हैं और अप्रमाद (सजग,चेतन) को अकर्म (संवर) कहा है। प्रमाद के होने से मनुष्य अज्ञानी होता है और प्रमाद न होने से मनुष्य ज्ञानी होता है।
Carelessness (pramad/negligence) has been defined as the influx of karmas (Asrava) and carefulness (Aparmad/ cautiousness) as the stoppage of the inflow of karmas (sanvar) i.e. carefulness makes one wise. (164)
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न कम्मुणा कम्म खवेंति वाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा ।
मेधाविणो लोभमया वातीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥6॥
न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति वाला, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः ।
मेधाविनो लोभमदाद् व्यतीताः, सन्तोषिणो नो प्रकुर्वन्ति पापम् ॥6॥
कर्म न काटे कर्म को, अकर्म धीर का कोष ।
लोभ मद का त्याग करे, मेधावी संतोष ॥1.13.6.165॥
अज्ञानी साधक कर्म के द्वारा कर्म का क्षय होना मानते हैं लेकिन कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नही होता। धीर पुरुष अकर्म (संवर/निवृत्ति) के द्वारा कर्म का क्षय करते है। ज्ञानी पुरुष लोभ और मद त्याग संतोषी होकर पाप नहीं करते।
The ignorant cannot destroy their Karmas by their actions while the wise can do it by their inaction i.e. by controlling their activities because they are free from greed and lustful passions and do not commit any sin as they remain contented. (165)
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सव्वओ पमत्तस्स भयं,
सव्वाओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ॥7॥
सर्वतः प्रमत्तस्य, भयं,
सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयम् ॥7॥
हरपल डर के भाव में, रहता जो मदहोश ।
चेतन रहे स्वभाव में, रहे अभय निर्दोष ॥1.13.7.166॥
प्रमत्त हरपल भयभीत रहता है। अप्रमत्त को कोई डर नही होता।
There is fear from every direction for an in-vigilant person; while there is no fear for a person who is vigilant. (166)
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नाऽऽलस्सेण समं सुक्खं, सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया।
न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ॥8॥
नाऽऽलस्येन समं सौख्यं, न विद्यासह निद्रया।
न वैराग्यं ममत्वेन, नारम्भेण दयालुता ॥8॥
सुखी रहे ना आलसी, निद्रालु नही सुजान।
ममता में वैराग नहीं, हिंसक दया न जान ॥1.13.8.167॥
आलसी सुखी नहीं हो सकता। निद्रालु विद्याभ्यासी नहीं हो सकता । ममत्व रखने वाला वैराग्यवान नही हो सकता और आरम्भी दयालु नहीं हो सकता।
An idle person can never be happy and sleepy person can never acquire knowledge. A person with attachments cannot acquire renunciation and he who is violent cannot acquire compassion (167)
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जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी।
जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ॥9॥
जागृत नराः! नित्यं, जागरमाणस्य वर्द्धते बुद्धिः।
यः स्वपिति न सो धन्यः, यः जागर्त्तिस सदा धन्यः ॥9॥
रहो जागृत नर सदा, बुद्धि बढ़ती जाय।
सोता है वो धन्य नहीं, जागे धन्य कहाय ॥1.13.9.168॥
मनुष्यों! सतत जागृत रहो। जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वो धन्य नही है। धन्य वही है जो सदा जागता रहता है।
Oh: human beings; always be vigilant. He who is alert gains more and more knowledge. He who is in-vigilant is not blessed. Ever blessed is he who is vigilant. (168)
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आदाणे णिक्खेवे वोसरणे णण–गमण–सयणेसु।
सव्वत्थ अप्पमत्तो दयावरो होइ हु अहिंसो ॥10॥
आदाने निक्षेपे, व्युत्सर्जने स्थानगमनशयनेषु।
सर्वत्राऽप्रमत्तो, दयापरो भवति खल्वहिंसकः ॥10॥
लेन–देन, मल–मूत्र में, चले–फिरे या सोय।
सजग दयालु आदमी, नहीं अहिंसक होय ॥1.13.10.169॥
वस्तुओं को उठाने धरने में, मल-मूत्र का त्याग करने में, बैठने तथा चलने फिरने में जो दयालु पुरुष सदा सजग (अप्रमत्त) रहता है वह निश्चय ही अहिंसक है।
A compassionate person who is always cautious while lifting and putting a thing, while urinating and excreting, and while sitting, moving and sleeping is really a follower of nonviolence. (169)
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