१५. अष्टावक्र महागीता
अष्टावक्र उवाच
यथातथोपदेशेन कृतार्थ: सत्त्वबुद्धिमान् ।
आजीवमपि जिज्ञासु: परस्तत्र विमुह्यति ॥
सहज सीख भी तार दे, सात्विक बुद्धिमान ॥
आजीवन वंचित रहे, जिज्ञासु बिन ज्ञान ॥15-1॥
__________________________________________
मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रस:।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु ॥
मिले मोक्ष, तज के विषय, बंधन रस हो जान।
करिये वह जो ठीक हो, जब हो ऐसा ज्ञान॥15-2॥
__________________________________________
वाग्मिप्राज्ञामहोद्योगं जनं मूकजडालसं ।
करोति तत्त्वबोधोऽयम-तस्त्यक्तो बुभुक्षभि:॥
मितभाषी सुब्ाुद्घि जन, तत्वज्ञान की चाह।
जीवन वो ऐसे जिये, रहे मौन की राह॥15-3॥
__________________________________________
न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्ष: सुखं चर ॥
न तन तेरा ना देह तू, भोग न कर्ता मान ।
चेतन, साक्ष, इच्छा रहित, रहना सुख-सम्मान ॥15-4॥
__________________________________________
रागद्वेषौ मनोधर्मौ न मनस्ते कदाचन।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकार: सुखं चर ॥
राग-द्वेष मन के धरम, आप नहीं ‘मन’ जान ।
बिन विकार बिन कामना, ज्ञानरुप सुख मान॥15-5॥
__________________________________________
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव ॥
सकल जीव तुझमें बसे, तू बसता सब जीव ।
अहंकार आसक्ति तज, रख ले सुख की नींव ॥15-6॥
__________________________________________
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देह – श्चिन्मूर्ते विज्वरो भव ॥
सागर से लहरें उठे, जग वैसे तू आय ।
नि:सन्देह चैतन्य तू, चिंता रहित उपाय ॥15-7॥
__________________________________________
श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व नात्र मोऽहं कुरुष्व भो: ।
ज्ञानस्वरूपो भगवा-नात्मा त्वं प्रकृते: पर:॥
निष्ठा-श्रद्धा अनुभव पे, मत मोहित हो तात ।
ज्ञानरूप भगवान तू, है निसर्ग बिन बात॥15-8॥
__________________________________________
गुणै: संवेष्टितो देह-स्तिष्ठत्यायाति याति च।
आत्मा न गंता नागंता किमेनमनुशोचसि॥
देह गुणों से है बने, जन्म-मरण का राग।
आई गई ना आत्मा, शोक न तेरा भाग ॥15-9॥
__________________________________________
देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वद्यैव वा पुन: ।
क्व वृद्धि: क्व च वा हानिस्-तव चिन्मात्ररूपिण: ॥
रहे अंत तक देह यह, या फिर नष्ट हो आज।
क्या हानि या लाभ हैं, चैतन का ना काज ॥15-10॥
__________________________________________
त्वय्यनंतमहांभोधौ विश्ववीचि: स्वभावत: ।
उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षति:॥
ज्यूँ सागर लहरें उठें, उसका यही स्वभाव ।
उदय-अस्त जग तुझसे है, बढ़े-घटे ना भाव ॥15-11॥
__________________________________________
तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिदं जगत् ।
अत: कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥
तुम चैतन्य स्वरूप हो, अलग नहीं जग जान।
ऊँच-नीच कोई नहीं, हो ना सोच सुजान॥15-12॥
__________________________________________
एकस्मिन्नव्यये शान्ते चिदाकाशेऽमले त्वयि ।
कुतो जन्म कुतो कर्म कुतोऽहंकार एव च ॥
शांत अनन्त आकाश में, तुम हो खड़े कुमार।
क्या जन्म, कैसा करम, कैसा ये अहंकार ॥15-13॥
__________________________________________
यत्त्वं पश्यसि तत्रैकस्-त्वमेव प्रतिभाससे ।
किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटकांगदनूपुरम् ॥
तू है एक, अनेक दिखे, प्रतिबिंबित हो काँच।
कंगना या पायल रहे, सोना ही है साँच ॥15-14॥
__________________________________________
अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति संत्यज ।
सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:सङ्कल्प: सुखी भव ॥
यह मैं हूँ यह मैं नहीं, करो द्वैत का त्याग।
तुम ही आत्स्वरूप सकल, संकल्प बिना सुख जाग ॥15-15॥
__________________________________________
तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेक: परमार्थत:।
त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नासंसारी च कश्चन ॥
तुम ही जगत, अज्ञान हैं, तुम हो एक सुजान ।
संसारी दूजा नहीं, तुम से अलग न जान॥15-16॥
__________________________________________
भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी ।
निर्वासन: स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति ॥
भ्रान्तिमात्र है यह जगत, ऐसा निश्चित जान।
त्याग चाह-चेष्टा रहित, नहीं शांति का भान ॥15-17॥
__________________________________________
एक एव भवांभोधा – वासीदस्ति भविष्यति ।
न ते बन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृत्यकृत्य: सुखं चर ॥
भवसागर बस एक है, सदा रहेगा एक ।
मोक्ष-बंध तुममें नहीं, सुख विचरण कर नेक ॥15-18॥
__________________________________________
मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय।
उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे ॥
संकल्प-विकल्प के फेर में, करो न चित्त अशांत ।
सुखपूर्वक आनंद में, कर लो मन को शांत ॥15-19॥
__________________________________________
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किंचिद् हृदि धारय ।
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि ॥
तजो ध्यान सब ओर से, मन में शांति अपार ।
आत्मरूप तुम मुक्त हो, हो न कोई विचार ॥15-20॥
__________________________________________