७. अष्टावक्र महागीता
जनक उवाच
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्तत: ।
भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता ॥
महासिंधु सा मैं यहाँ, जैसे जगत जहाज़ ।
इधर-उधर वो डोलता, विघ्न पड़े ना काज॥7-1॥
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मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचि: स्वभावत:।
उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षति:॥
महासिंधु सा मैं यहाँ, जग ज्यूँ लहर स्वभाव ।
अस्त-उदय माया सरिस, घटे-बढ़े ना भाव ॥7-2॥
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मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम विकल्पना।
अतिशांतो निराकार एतदेवाहमास्थित: ॥
महासिंधु सा मैं यहाँ, सपना जगत सुजान ।
निराकार मैं शांत हूँ, शाश्वत मेरी शान ॥7-3॥
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नात्मा भावेषु नो भावस्-तत्रानन्ते निरंजने ।
इत्यसक्तोऽस्पृह: शान्त एतदेवाहमास्थित: ॥
मैं या दूजा भाव ना, नहीं सदोष, विशाल ।
शांत रुप ही मैं रहूँ, शाश्वत मेरा काल॥7-4॥
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अहो चिन्मात्रमेवाहं इन्द्रजालोपमं जगत् ।
अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥
इन्द्रजाल के ही सदा, मैं और जादू – जाल ।
क्यों कर ऐसी कल्पना, अच्छा-बुरा सवाल ॥7-5॥
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