४. अष्टावक्र महागीता
अष्टावक्र उवाच
हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया ।
न हि संसारवाहीकै – र्मूढै: सह समानत: ॥
आत्मज्ञानी खेलता, लीला भोग समान ।
सांसारिक जन से नहीं, तुलना का अभिमान ॥4-1॥
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यत् पदं प्रेप्सवो दीना: शक्राद्या: सर्वदेवता: ।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ॥
पद जो चाहे देवता, मिल जाये संसार ।
स्थिर योगी रहता सदा, हर पल हर्ष अपार ॥4-2॥
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तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते ।
न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि सङ्गति: ॥
पुण्य-पाप का ब्रह्म से, नाता नहीं सुजान ।
जैसे गगन धुआँ दिखे, दृश्य मात्र पहचान ॥4-3॥
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आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना ।
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत क:॥
जगत रुप जो जानता, महाआत्म का ज्ञान ।
कौन रोक उसकी सके, वर्तमान पहचान ॥4-4॥
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आब्रह्मस्तंबपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे ।
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्य – मिच्छानिच्छाविवर्जने॥
तिनकों से हैं ब्रह्म तक, चार तरह के प्राण ।
आत्म – ज्ञान समरथ सदा, इच्छा ना बलवान॥4-5॥
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आत्मानमद्वयं कश्चिज् – जानाति जगदीश्वरं ।
यद् वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित् ॥
इक आत्मा, बिरला कहे, आत्म जगत भगवान ।
जो है ऐसा जानता, वह निर्भय बलवान ॥4-6॥
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