३.अष्टावक्र महागीता
अष्टावक्र उवाच
अविनाशिनमात्मानं एकं विज्ञाय तत्त्वत:।
तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रति:॥
इक अविनाशी आत्मा, जानो ऐसा ज्ञान ।
बुद्धिमान यह जान ले, धन अर्जन नहीं शान ॥3-1॥
__________________________________________
आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषय भ्रमगोचरे।
शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे ॥
सदा आत्म अज्ञान अरू, भ्रम से विषय लगाव ।
सीप कभी चाँदी लगे, लोभ जगावे भाव ॥3-2॥
__________________________________________
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे ।
सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि॥
उद्भव होता है जगत, सागर लहर उफान ।
मैं ही हूँ यह जानकर, भाग न दीन समान॥3-3॥
__________________________________________
श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरं।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति ॥
शुद्ध है चेतन आत्मा, सुंदर है सब जान ।
फिर क्यों आसक्ति तले, दूषित करते प्राण ॥3-4॥
__________________________________________
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते ॥
जीव सभी मुझमें बसे, बसता मैं हर जीव ।
अचरज मुनि यह जानता, फिर भी मोह की नींव ॥3-5॥
__________________________________________
आस्थित: परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थित: ।
आश्चर्यं कामवशगो विकल: केलिशिक्षया ॥
आश्रय चाहे ब्रह्म का, जिसे मोक्ष का ज्ञान ।
विषय वासना से गिरे, अचरज इसको मान ॥3-6॥
__________________________________________
उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रम – वधार्यातिदुर्बल: ।
आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रित:॥
ज्ञान-शत्रु का हो उदय, अंत समय आघात ।
कामवासना मन रखे, यह अचरज की बात ॥3-7॥
__________________________________________
इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिन: ।
आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षाद् एव विभीषिका ॥
भाव मुक्ति है जगत से, नित्य- अनित्य का ज्ञान ।
चाह मोक्ष की है प्रबल, अचरज डर का भान ॥3-8॥
__________________________________________
धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा ।
आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति ॥
भोजन या पीड़ा मिले, बुद्धिमान सम भाव ।
ना ख़ुश हो ना हो दुखी, आत्म दरश का चाव ॥3-9॥
__________________________________________
चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत् ।
संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशय: ॥
कार्यशील निज देह है, दूजी देह समान ।
निंदा हो आभार हो, विचलित करे न जान ॥3-10॥
__________________________________________
मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुक:।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी: ॥
जिज्ञासाओं के बिना, जग मायावी जान ।
मौत खड़ी पर डर नहीं, स्थिर बुद्धि पहचान ॥3-11॥
__________________________________________
नि:स्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मन:।
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते ॥
है निराश, इच्छा रहित, महा आत्मा जान ।
ज्ञान प्रकाशित तृप्त भी, तुलना नहीं सुजान ॥3-12॥
__________________________________________
स्वभावाद् एव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन ।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधी: ॥
दृश्य जगत को जानिये, ऐसा रहे स्वभाव ।
ग्रहण करे या त्याग दे, क्या है धीर प्रभाव ॥3-13॥
__________________________________________
अंतस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिष: ।
यदृच्छयागतो भोगो न दु:खाय न तुष्टये॥
आसक्ति का त्याग करें, शक-संदेह न काम ।
भोग भले आते रहें, ना दुख-सुख का नाम ॥3-14॥
__________________________________________