२. अष्टावक्र महागीता
जनक उवाच
अहो निरंजन: शान्तो, बोधोऽहं प्रकृते: पर:।
एतावंतमहं कालं, मोहेनैव विडम्बित: ॥
ओह! निष्कलंक, शांत मैं, प्रकृति परे सुजान ।
भ्रम में मैं अब तक रहा, पड़े मोह में प्राण ॥2-1॥
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यथा प्रकाशयाम्येको, देहमेनो तथा जगत्।
अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किंचन॥
यूँ मैं रोशन तन करूँ, जग भी रोशन होय ।
पूर्ण जगत या मैं बसूँ, या फिर जग ना होय ॥2-2॥
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सशरीरमहो विश्वं, परित्यज्य मयाऽधुना ।
कुतश्चित् कौशलादेव, परमात्मा विलोक्यते॥
तनसहित मै त्याग दूँ, यह सारा संसार ।
कौशल कुछ ऐसा मिले, खुले प्रभु का द्वार ॥2-3॥
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यथा न तोयतो भिन्नास्-तरंगा: फेन बुदबुदा: ।
आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ॥
अलग नहीं जल लहर से, बुल्ला फेन समान ।
अलग आत्मा भी नहीं, जगत एक ही मान ॥2-4॥
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तंतुमात्रो भवेदेव, पटो यद्वद्विचारित: ।
आत्मतन्मात्रमेवेदं, तद्वद्विश्वं विचारितम् ॥
वस्त्र देखिये ग़ौर से, धागों का है जाल ।
आत्माओं का जाल ही, सकल जगत का हाल ॥2-5॥
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यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता, तेन व्याप्तैव शर्करा ।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं, मया व्याप्तं निरन्तरम्॥
रस गन्ने का रूप हैं, चीनी भी रस-रूप ।
वैसे जग मुझसे बना, मैं ही जगत-स्वरूप ॥2-6॥
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आत्माऽज्ञानाज्जगद्भाति, आत्मज्ञानान्न भासते ।
रज्जवज्ञानादहिर्भाति, तज्ज्ञानाद्भासते न हि ॥
आत्म लगे जग, ज्ञान बिन, रहे न जग, हो ज्ञान ।
रस्सी लगती सर्प सी, सर्प लुप्त, जब ध्यान॥2-7॥
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प्रकाशो मे निजं रूपं, नातिरिक्तोऽस्म्यहं तत: ।
यदा प्रकाशते विश्वं, तदाऽहंभास एव हि ॥
मेरा रूप प्रकाश है, नहीं परे पहचान।
ज्यूँ प्रकाशित जग करे, मैं की भी पहचान॥2-8॥
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अहो विकल्पितं, विश्वंज्ञानान्मयि भासते ।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ, वारि सूर्यकरे यथा ॥
कल्पित जग मुझ में दिखे, कारण है अज्ञान ।
सर्प-सीप रस्सी रजत, सूर्य किरण जल भान ॥2-9॥
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मत्तो विनिर्गतं विश्वं, मय्येव लयमेष्यति ।
मृदि कुम्भो जले वीचि:, कनके कटकं यथा ॥
मुझसे ही है जग बना, मुझमें होय विलीन ।
घट माटी, जल में लहर, कड़ा कनक में लीन ॥2-10॥
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अहो अहं नमो मह्यं, विनाशो यस्य नास्ति मे ।
ब्रह्मादिस्तंबपर्यन्तं, जगन्नाशोऽपि तिष्ठत:॥
अचरज है! ख़ुद को नमन, जीऊँ विश्व – विनाश ।
मिट जाये तृण ब्रह्म सब, मगर रहूँ आकाश ॥2-11॥
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अहो अहं नमो मह्यं, एकोऽहं देहवानपि ।
क्वचिन्न गन्ता नागन्ता, व्याप्य विश्वमवस्थित: ॥
अचरज है! मुझको नमन, हूँ मैं ही सशरीर ।
आवे-जावे जो नहीं, फैला जग तस्वीर ॥2-12॥
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अहो अहं नमो मह्यं, दक्षो नास्तीह मत्सम: ।
असंस्पृश्य शरीरेण, येन विश्वं चिरं धृतम् ॥
अति आश्चर्य! नमन मुझे, कुशल अनोखा जान ।
बिना स्पर्श इस देह के, जग धारण को मान ॥2-13॥
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अहो अहं नमो मह्यं, यस्य मे नास्ति किंचन ।
अथवा यस्य मे सर्वं यद् वाङ्मनसगोचरम् ॥
अचरज है! मुझको नमन, जो कुछ रखे न पास ।
या मन-वाणी से समझ, उसका है आभास ॥2-14॥
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ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञात्ता, त्रितयं नास्ति वास्तवं ।
अज्ञानाद् भाति यत्रेदं, सोऽहमस्मि निरंजन: ॥
ज्ञान, ज्ञेय ज्ञाता नहीं, सत्य न तीनों मान ।
यह केवल अज्ञानता, शुद्ध रूप मैं जान ॥2-15॥
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द्वैतमूलमहो दु:खं नान्य-त्तस्याऽस्ति भेषजं ।
दृश्यमेतन् मृषा सर्वं, एकोऽहं चिद्रसोमल: ॥
द्वैत दुखों का मूल है, ना इसका उपचार ।
जो दिखता वो भ्ाूल है, चेतन निर्मल सार ॥2-16॥
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बोधमात्रोऽहमज्ञानाद्, उपाधि: कल्पितो मया ।
एवं विमृशतो नित्यं, निर्विकल्पे स्थितिर्मम ॥
इक में ज्ञान स्वरुप हूँ, गोचर हूँ अज्ञान ।
नित मेरा अस्तित्व है, कारणरहित सुजान ॥2-17॥
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न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा भ्रान्ति: शान्तो निराश्रया ।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम् ॥
भ्रम ना बंधन-मुक्ति का, शांत निराश्रय जान ।
जगत नहीं मन में बसा, यही वास्तविक मान ॥2-18॥
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सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितं ।
शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना ॥
साथ देह के जगत भी, अस्तित्वहीन पहचान ।
शुद्ध ये चेतन आत्मा, है सब शेष गुमान ॥2-19॥
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शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा ।
कल्पनामात्रमेवैतत् किं मे कार्यं चिदात्मन: ॥
स्वर्ग-नर्क ये देह सब, बंध मोक्ष भय नाम ।
बात कल्पना की सभी, क्या चेतन का काम ॥2-20॥
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अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम ।
अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम् ॥
देखूँ जब मैं भीड़ को, अचरज दिखे न द्वैत ।
जैसे निर्जन सब लगे, मोह नहीं अद्वैत ॥2-21॥
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नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित् ।
अयमेव हि मे बन्ध आसीद्या जीविते स्पृहा ॥
नहीं देह ना देह का, जीव न मगर सचेत ।
मन में इच्छा जीव की, बंधन यही संकेत ॥2-22॥
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अहो भुवनकल्लोलै – विचित्रैर्द्राक् समुत्थितं।
मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते समुद्यते ॥
महा सिंध्ाु मन का जहाँ, उठती लहर हज़ार ।
पूर्ण जगत हिलडुल करे, मन विचलित हर बार ॥2-23॥
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मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति ।
अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वर: ॥
महा-सिंधु मन में उठे, जो थम जाय विचार।
जीव स्वरूप जहाज़ का, बेड़ा होता पार ॥2-24॥
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मय्यनन्तमहांभोधा – वाश्चर्यं जीववीचय: ।
उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावत:॥
ओह महासागर अनन्त, मन मम् उठते भाव ।
अंतस में रमते मिले, जाकर बने स्वभाव ॥2-25॥
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