Nectar Of Wisdom

नम: श्रीवर्द्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥१॥

सब कर्मों का नाश किया, करू नमन वर्द्धमान।
लोक-अलोक दर्पण सा, झलके केवलज्ञान॥१॥

 

जिन्होंने पाप को आत्मा से नष्ट कर दिया, जिनका केवलज्ञान दर्पण के समान अलोक व तीनों लोकों में झलकता है ऐसे अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमान स्वामी को नमस्कार है।

I bow to Shri Vardhman Mahavir who has shredded all karma from his soul and whose omniscient knowledge reflects like mirror in alokakash as well three lokas.

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देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्मनिबर्हणम्।
संसारदु:ख़त: सत्तवान्, ये धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥

कहता सच्चा धर्म हूँ, करे कर्म का नाश।
संसार के दुख से निकल, मिले सुख, मोक्ष वास॥२॥

 

मैं उस सच्चे धर्म को कहता हूँ जो कर्मों का विनाश करने वाला है व जीवों को संसार के दु:खों से निकालकर मोक्ष के श्रेष्ठ सुख में पहुँचाने वाला है।

I will preach true dharma which can destroy all karma and can free from all pains and miseries and installs the soul to supreme bliss.

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सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विंदु:।
यदीयप्रत्यनीकानि, भवन्ति भवपद्धति:॥३॥

सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र, जिन धर्म का मार्ग।
मिथ्यादर्शन ज्ञान चरित्र, जग भ्रमण का मार्ग॥३॥

 

जिनेश्वर के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धर्म का मार्ग है इसके विपरीत मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार भ्रमण का मार्ग है।

Tirthankars have described right faith, right knowledge and right conduct as path to liberation and opposite path of wrong faith, wrong knowledge and wrong conduct leads to continuous transmigration in this world.

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श्रद्धानं परमार्थानामाप्तगमतपोभूतां।
त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयं॥४॥

सम्यग्दर्शन श्रद्धान है, गुरु शास्त्र और देव।
मूढ़ता और मद नहीं, अष्ट अंग को ठेव॥४॥

 

तीन मूढताओं से रहित, आठ अंगो सहित और आठ मदों से रहित सच्चे देव, शास्त्र एवं गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है।

Without three kinds of wrong knowledge, with eight types of right faith and without eight kinds of pride having faith in true god, true scriptures and true teacher is called right faith.

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आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वेज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्॥५॥

हितउपदेशी, दोष ना, सर्वज्ञ व वीतराग।
देवपना हो नियम से, केवली के न राग॥५॥

 

आप्त को अठारह दोषों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ और आगम का हितोपदेशी नियम से होना चाहिये क्योंकि अन्य प्रकार से देवपना नहीं हो सकता।

The true god as a rule should be free from eighteen faults and passionless, omniscient and deliverer of sermons.

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क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मया:।
न रागद्वेषमोहाश्च, यस्याप्त: स प्रकीर्त्यते॥६॥

भूख, प्यास, रोग न जरा, जन्म, मरण, भय न राग।
गर्व, राग, द्वेष, मोह ना, अरति न चिन्ता आग॥

निद्रा, और आश्चर्य नहीं, स्वेद, रोष ना खेद।
जिन अठारह दोष नहीं, आगम का यह वेद॥६॥

सच्चे देव १८ दोषों से रहित होते है। भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, अरति, निद्रा, आश्चर्य, स्वेद, रोष और खेद।

The god is free from 18 flaws. Hunger, thirst, old age, disease, birth, death, fear, pride, attachment, aversion, infatuation, worry, disliking, sleep, surprise, hatred, fury, sorrow.

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परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमल: कृती।
सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्त:, सार्व: शास्तोपलाल्यते॥७॥

परम पद व ज्योति परम, मलरहित, केवल ज्ञान।
आदि मध्य और अंत रहित, हित उपदेशक जान॥७॥

 

आप्त ही है- परमेष्ठी- परम पद में स्थित, परम ज्योति- केवलज्ञानी, रागरहित, मलरहित, कृतकृत्य, सर्वज्ञ, आदि-मध्य-अंत रहित, सर्वहितकर्ता, और हितोपदेशक।

True God is, highest status, omniscient, free from all kind of desires, pure, devoid of beginnings, end and middle, friend of all living beings and a teacher.

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अनात्मार्थं विना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम् ।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरज: किमपेक्षते॥८॥

प्रयोजन व आस नहीं, हित उपदेश हो ख़ास।
ज्यूँ संगीतज्ञ हाथ लगे, ठोल बजे बिन आस॥८॥

 

हितोपदेशक बिना अभिलाषा के अपना प्रयोजन न होने पर भी भव्यजीवों के हित को कहते हैं जैसे मृदंग संगीतज्ञ के हाथ लगाने पर बिना किसी अपेक्षा बज उठता है।

Just as drum gives sound without any expectation in consequence of the contact of drummers hand, so does the teacher reveals truth without any expectation.

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आप्तोपज्ञमनुल्लड्ध्य, मदृष्टेष्टविरोधकं।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनं॥९॥

शास्त्र वह जो आप्त कहे, तत्त्व का हो ज्ञान।
विरोध ना, हितकर रहे, मिथ्या खंडन जान॥९॥

 

तीर्थंकर भगवान द्वारा कहा गया उल्लंघनरहित, विरोधरहित, तत्त्व का उपदेश करने वाला, सबका हितकारी और मिथ्या मार्ग का खण्डन करने वाले को शास्त्र कहते है।

True scripture is word of Tirthankara, which can’t be over ridden, nor can be opposed, which reveals the true nature of substances, which is beneficial to all and destroys the wrong faith.

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विषयाषावशातीतो, निराम्भोऽपरिग्रह:।
ज्ञानध्यानतपोरत्नस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥

गुरु उत्तम जो विषय रहित, परिग्रह नहीं जान।
लीन रहे जो हर समय, तप ध्यान हो ज्ञान॥१०॥

 

प्रशंसनीय गुरु वह है जो विषयरहित, आरम्भरहित, परिग्रहरहित और ज्ञान, ध्यान और तप में लीन है।

True teacher is who is desireless, beginningless and possessionsless and who is always absorbed in study, meditation and austerities.

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इदमेवेदृशमेव, तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा।
इत्यकम्पायसाम्भोवत् सन्मार्गेऽसंशया रुचि:॥११॥

है यही पर अन्य नहीं, तत्त्व मोक्ष का ज्ञान।
पानी ज्यूँ तलवार पर, नि:शंकित अंग है जान॥

 

तत्त्व स्वरुप और मोक्षमार्ग के विषय में लोहे की तलवार पर चढ़े हुए लोगे के पानी के समान अटल श्रद्धा होना की यह ही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है और अन्य प्रकार भी नहीं है, यही नि:शंकित अंग है।

Having unshakable faith like the unwavering lustre of the sharp edge of sword, in the nature of substances explained in Jain agam is called Nishankit anga.

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कर्मपरवशे सान्ते दु:खारन्तरितोदये।
पापबीजे सुखेनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता॥१२॥

दुख कर्म के अधीन है, सांसारिक सुख पाप।
आकांक्षा सम्यग्दृष्टि नहीं, नि:कांक्षित अंग जाप॥१२॥

 

सम्यग्दृष्टि जीव कर्मो के अधीन दु:ख और पापजनित सांसारिक सुख में आस्था ना रख के अपने नि:कांक्षित अंग को सुरक्षित रखते है।

The souls with right faith knows well that all suffering is due to rise of karma and sensual pleasures ultimately leads to sin, they safe guard their right faith with nikanshit anga.

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स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता॥१३॥

अपवित्र यह शरीर है, रत्नत्रय पवित्र जान।
तन से ग्लानि हो नहीं, निर्विचिकित्सा पहचान॥१३॥

 

यह शरीर स्वभाव से अपवित्र पर रत्नत्रय से पवित्र जानकर ग्लानि रहित गुणों में प्रेम होना निर्विचिकित्सा अंग माना गया है।

The body is impure by nature but pure by virtues of three jewels, by knowing this not to have feeling of disgust is nirvichikitsa anga of right faith.

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कापथे पथिदु:खानां, कापथस्थेऽप्यसम्मति:।
असंपृत्कि रनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते॥१४॥

मिथ्यात्व ही कुमार्ग है, पथ नहीं कल्याण।
सम्यग्दृष्टि यह जानता, अमूढदृष्टि पहचान॥१४॥

 

सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व के मार्ग को कुमार्ग जानता है और उसे कल्याण का मार्ग नहीं समझता व शरीर के अंगों से किसी प्रकार की प्रशंसा नहीं करके अपने अमूढदृष्टि के अंग को दृढ़ रखता है।

Non-recognition of wrong path and not giving any kind of approval to those who are on wrong path is amudhdrashti anga.

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स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम।
वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगूहनं॥१५॥

रत्नत्रय पथ निर्मल है, दोष हो जब अज्ञान।
सम्यग्दृष्टि प्रकट न करे, उपगूहन यह जान॥१५॥

 

रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्ग स्वभाव से निर्मल है लेकिन अज्ञानी द्वारा उसमें कोई दोष उत्पन्न होता है तो सम्यग्दृष्टि जीव उस दोष को छुपाकर उपगूहन अंग को दृढ़ करते है।

To hide the ridicule raised by ignorant about path of Jainism is upguhun anga.

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दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलै:।
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै: स्थितीकरणमुच्यते॥१६॥

दर्शन चारित्र से विचलित, धर्मज्ञ करे प्रयास।
हो पुन: फिर स्थापना, स्थितिकरण में वास॥१६॥

 

सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्चारित्र से चलायमान होनेवाले लोगों का धर्म वत्सल जनों के द्वारा पुन: स्थापना करने को प्राज्ञ पुरुष स्थितीकरण अंग कहते है।

When someone is wavering from right path or right conduct and someone else is helping in reestablishing there in, wise call it stithikaran anga.

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स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाथापेतकैतवा।
प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते॥१७॥

सहधर्मी के प्रति रखे, स्नेहमयी सद्भाव।
यथोचित प्रवृत्ति कहा, वात्सल्य अंग प्रभाव॥१७॥

 

अपने साधर्मी समाज के प्रति सद्भावसहित छलकने रहित यथोचित स्नेहमयी प्रवृत्ति को वात्सल्यअंग कहते है।

Expressing love and respect with co-religionists with good intention is called vatsalya anga.

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अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्यात्प्रभावना॥१८॥

यथासंभव उपाय करे, दूर करे अज्ञान।
फैले जिनशासन जगत, प्रभावना अंग जान॥१८॥

 

अज्ञानरुप अंधकार के प्रसार को यथासंभव उपायों के द्वारा दूर करके जिन शासन के प्रभाव को जगत मे प्रकाशित करना प्रभावना अंग है।

To establish the glory of Jainism by removing dense cloud of ignorance is Prabhavana anga.

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तावदञ्जनचौरोऽङ्गे ततोऽनन्तमती स्मृता।
उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता॥१९॥

ततो जिनेन्द्रभक्तोऽन्यो वारिषेणस्तत: पर:।
विष्णुश्च वज्रनामा च शेषयोर्लक्ष्यतां गतौ॥२०॥

अंजन चोर प्रथम अंग में, अनन्तमती की ख्यात।
उद्दायन राजा तीसरे, करे रेवती बात॥१९॥

जिनेन्द्र भक्त अंग पाँचवा, वारिषेण की ख्यात।
विष्णुकुमार मुनि सातवें, वज्रकुमार मुनि बात॥२०॥

 

उपर्युक्त आठ अंगों में प्रथम में अंजन चोर, दूसरे में अनन्तमती, तीसरे में उद्दायन राजा, चौथे में रेवती रानी, पाँचवें में जिनेन्द्रभक्त श्रेष्ठ, छठे में वारिषेण राजकुमार, सातवें में विष्णुकुमार मुनि और आठवें अंग में वज्रकुमार मुनि प्रसिद्धि को प्राप्त हुए।

 

8 persons attained fame in following 8 anga

  1. Nishankit- Anjan thief
  2. Nikankshit- Anantmati
  3. Nirvachikitsit – Uddayan king
  4. Amoodhdrishti- Queen Revati
  5. Upguhan- Jinendra bhakt shreshtha
  6. Stithikaran- Prince Varishen
  7. Vatsalya- Muni Vishnukumar
  8. Prabhavana- Muni Vajrakumar

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नाङ्गहीनमलं छेतुं दर्शनं जन्मसन्ततिम्।
न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम्॥२१॥

हो कमी एक भी अंग में, मुक्ति नहीं संसार।
ज्यूँ अक्षर कम मन्त्र में, विष की ना है मार॥२१॥

 

उक्त आठ अंगो से किसी भी अंग से हीन सम्यग्दर्शन संसार की परंपरा को छेदने के लिए समर्थ नहीं है जैसे एक अक्षर भी न्यून मन्त्र विष की वेदना को नष्ट करने के लिए समर्थ नहीं होता।

 

As an incomplete mantra even by one letter is not capable of removing venom, so is the faith which is imperfect in any of the limb is not capable to pierce the life cycle.

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आपगासागरस्नानमुच्चय: सिकताश्मनाम्।
गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते॥२२॥

नहा समुद्र या गंगा, पूजे पत्थर ढेर।
अग्नि प्रवेश, पर्वत गिरे, लोकमूढता फेर॥२२॥

 

धर्म बुद्धि से गंगादि नदियों और समुद्रों में स्नान करना, बालु और पत्थरों का ऊँचा ढेर लगाना, पर्वत से गिरना, अग्नि में प्रवेश करना आदि लोकमूढता कहा जाता है।

 

Bathing in Ganga or oceans, setting up heaps of sand and stones for worship, jumping from mountain or into the fire is Lokmudhata.

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वरोऽपलिप्सयाऽऽशावान् रागद्वेषमलीमसा:।
देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते॥२३॥

आशा तृष्णा के वश में, कुगुरू जिसमें राग।
ऐसे देव का पूजना, देवमूढता आग॥२३॥

 

आशा तृष्णा के वशीभूत होकर वर पाने की इच्छा से राग द्वेष से मलिन देवताओं की उपासना देवमूढता है।

Worshipping with desires to obtain favour of deities whose mind is full of personal likes and dislikes is called the Devmudhata.

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सग्रन्थाऽऽरम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम्।
पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम्॥२४॥

आदर करता पाखंडी, हिंसा युक्त संसार।
परिग्रह आरंभ में फँसा, पाखंडमूढ विचार॥२४॥

 

परिग्रह, आरंभ और हिंसा से युक्त संसार के गोरखधंधे रुप भँवरों के मध्य पड़े हुए पाखंडी लोगों का आदर करना पाखंडिमूढता है।

Worshipping false ascetics who continue to have possession, beginning and violences is called Gurumudhata.

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ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपों वपु:।
अष्टावाश्रित्यमानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मया:॥२५॥

ज्ञान भक्ति कल जाति बल, ऋद्धि तन अभिमान।
आठ मद करते जन जो, आचार्य न सम्मान॥२५॥

 

ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठ बातों का अभिमान करने को गर्वरहित आचार्य मद कहते है।

 

Acharya have defined 8 prides. Knowledge, worshipping, family, tribe, power, accomplishments, austerity and body.

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स्मयेन योऽन्यानयेति धर्मस्थान् गर्विताशय:।
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना॥२६॥

तिरस्कार धर्मात्मा, व्यक्ति युक्त अभिमान।
हो धर्मी बिना धर्म नहीं, मत कर धर्म अपमान॥२६॥

 

अभिमानयुक्त चित्त वाला जो पुरुष अन्य धर्मात्मा का तिरस्कार करता है वह अपने ही धर्म का अपमान करता है क्योंकि धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं होता।

Disrespecting person with virtues in ego, is disrespecting religion itself because religion is because of virtuous people only.

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यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ।
अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्॥२७॥

 

क्या प्रयोजन सम्पत्ति का, जब पाप का निरोध।
क्या प्रयोजन सम्पत्ति का, जब आस्रव न विरोध॥२७॥

 

अगर पाप का निरोध है तो अन्य सम्पत्ति का क्या प्रयोजन और पाप का आस्रव है तो अन्य सम्पत्ति का क्या प्रयोजन?

 

What is the use of possessions if influx is stopped and what is the use of possessions if influx is continuing?

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सम्यग्दर्शनसम्पन्नमति मातङ्गदेहजम्।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारानतरौजसम्॥२८॥

जन्म भले नीच कुल हो, जब सम्यग्दर्शक यार।
तीर्थंकर भी पूज्य कहे, राख ढकी अंगार॥२८॥

 

सभी तीर्थंकर देव सम्यग्दर्शन सहित चाण्डालकुल में पैदा हुए जीव को राखसहित अंगार के भीतरी प्रकाश के समान पूज्य कहते है।

The propagators of dharma describe even a low caste man possessing right faith as divine being it’s like fire hidden by ashes on charcoal.

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श्वापि देवाऽपि देव: श्वा जायते धर्मकिल्विषात्।
कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम्॥२९॥

हो कुत्ता भी, देव बने, देव बनता श्वान।
धर्म से श्रेष्ठ कुछ नहीं, धर्म आचरण मान॥२९॥

 

धर्म और पाप से क्रमश: कुत्ता भी देव और देव भी कुत्ता हो जाता है। इसलिये जीवों के धर्म से अन्य और कौन सी सम्पत्ति श्रेष्ठ हो सकती है? इसलिये धर्म का ही आचरण करना चाहिये, अन्य नहीं।

 

Because of virtue a dog can become deity and because of sin a deity can become dog, so there is no wealth greater than Dharma.

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भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवाऽऽगमलिङ्गिनाम्।
प्रणामं विनयं चैव न कुर्यु: शुद्धदृष्टय:॥३०॥

भय आस प्रेम लोभ से, न विनय ना प्रणाम।
कुदेव शास्त्र व गुरु का, लेता न कभी नाम॥३०॥

 

शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, प्रेम और लोभ से  कुदेव, कशास्त्र व कुगुरु को विनय और प्रणाम न करे।

A person with right faith shall not show reverence to false deity, false scriptures or false teacher due to fear, hope, love or greed.

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दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमपाश्नुते।
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते॥३१॥

ज्ञान चारित्र से अधिक, सम्यग्दर्शन महान।
कर्णधार इसको कहा, मोक्षमार्ग पहचान॥३१॥

 

सम्यग्दर्शन की ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा प्रधानता से उपासना की जाती है क्योंकि सम्यग्दर्शन को मोक्षमार्ग में कर्णधार कहा जाता है।

Right faith takes precedence over knowledge and conduct because right faith acts as a pilot on the path of liberation.

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विद्यावृत्तस्य सम्भूति स्थितिवृद्धि फलोदया:।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥३२॥

उत्पत्ति, वृद्धि और फल, चारित्र और ज्ञान।
सम्यक्त्व ही बीज है, बीज बिना ना धान॥३२॥

 

जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि व फल की प्राप्ति नहीं होती।

Just as one can’t have origin or growth of tree and fruits without seed, it is not possible to have right knowledge and right conduct without right faith.

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गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्।
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुने:॥३३॥

सम्यक् गृहस्थ स्थित रहे, मिथ्या मुनि कमजोर।
सम्यक् गृहस्थ श्रेष्ठ कहा, मोक्ष मार्ग का मोर॥३३॥

 

मोह मिथ्यात्व से रहित गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है परन्तु मोह मिथ्यात्व सहित मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। मोही मिथ्यादृष्टि मुनि के अपेक्षा मोहरहित सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है।

A householder with right faith is fixed on the path of liberation but an ascetic is not fixed if he has wrong faith. A right faith householder is better than wrong faith sant.

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न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्॥३४॥

तीन काल, सर्व लोक में, सम्यक् ही कल्याण।
मिथ्या दर्शन उचित नहीं, मंगल नहीं है जान॥३४॥

 

प्राणियों के लिये तीनों काल व तीनों लोक में सम्यग्दर्शन के समान कल्याणकारी व मिथ्यादर्शन के समान अकल्याणकारी कुछ नहीं है।

All the time and in all the world there is nothing more auspicious than right faith and nothing Inauspicious than wrong faith.

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सम्यग्दर्शनशुद्धा नारक तिर्यङ् नपुंसक स्त्रीत्वानि।
दुष्कुल विकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिका:॥३५॥

नरक, त्रियंच, नपुंसक, स्त्री, नीच, विकृत न होय।
सम्यक्सहित हो व्रत रहित, अल्पवय, निर्धन न होय॥३५॥

 

सम्यग्दर्शन सहित जीव व्रतरहित होने पर भी नारक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्रीपन, नीचकुल, विकलांगता, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता है।

A person without vows but with right faith don’t born as infernal being, animal, neuter gender, women, low caste, deformity, short life and poor.

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ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:।
महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता:॥३६॥

ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, मनु सम्यग्दृष्टि महान।
विजय, वैभव, कुल, उन्नति, पुरुषार्थ की शान॥१.३६॥

 

सम्यग्दृष्टि मनुष्य गति जीव उत्साह, तेज, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और वैभव से युक्त महान कुल में जन्म, पुरुषार्थी व मनुष्यों में उत्तम होते है।

Those with right faith become the Lords of splendour, energy, wisdom, progress, fame, wealth, victory and greatness. They are born in high families and possess the ability to realise the highest dharma, Artha Kama and moksha of life and they are the best of humans.

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अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टा प्रकृष्टशोभाजुष्टा:।
अमराप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ता: स्वर्गे ॥३७॥

शोभा युक्त व आठ ऋद्धि, सम्यग्दृष्टि संयोग।
अप्सरा की सभा मिले, चिरकाल करे भोग॥१.३७॥

 

सम्यग्दर्शन से युक्त जिनेन्द्र भक्त देव अणिमा महिमा आदि आठ ऋद्धि से पूर्ण, प्रमुदित व उत्कृष्ट शोभा से संयुक्त होकर देवों और अप्सरा की सभाओं में चिरकालिक तक आनन्द का उपभोग करते है।

Those who have the right faith are born as celestial beings where they become the devotees of Lord Jinendra and endowed with eight kinds of miraculous powers and great splendour, enjoy themselves for long millenniums in the company of Devas and devanganas. 

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नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशा: सर्वभूमिपतयश्चक्रम।
वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृश: क्षत्रमौलिश्खरचरणा:॥३८॥

नौ निधि चौदह रत्न हो, चक्रवती संयोग।
सम्यग्दृष्टि राज करे, मुकुट चरण का योग॥१.३८॥

 

निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव नौ निधि व चौदह रत्न का स्वामी और सर्वभूमि के अधिपति होकर सुदर्शन चक्र को चलाने में समर्थ होते है। नमस्कार करते हुए राजाओं की मुकुटों की माला से उनके चरण व्याप्त रहते है।

Those who are endowed with the right faith are attended upon by great emperors and kings, they acquire all the most wonderful things in the world, the entire earth comes under their sway and they are competent to command all men.

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अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादाम्भोजा:।
दृष्ट्या सुनिशचितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्या:॥३९॥

अमर, असुर, यम व नर पति, तत्त्व व दर्शन ज्ञान।
धर्मचक्र धारण करे, लोक शरण ले जान॥१.३९॥

 

सम्यग्दर्शन द्वारा जिन्होंने तत्त्वार्थ भलिभाँति समझा है वे अमरपति, असुरपति, नरपति व यमधरपति से चरणकमल पूजे जाते हैं जो लोक को शरण देने के योग्य है ऐसे धर्मचक्र के धारक तीर्थंकर होते है।

By virtue of right faith man acquire the supreme status of Tirthankara, the master who knows all things well, whose feet are worshipped by the rulers of Devas, Lord of Asuras and Kings of man, as well as by holy saints, who is the support of dharma and the protector of all living beings in the three worlds. 

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शिवमजरमरुजमक्षयमव्याबाधं विशोकभयशङ्कम्।
काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भवन्ति दर्शनचरणा:॥४०॥

जर जरा व बाधा रहित, भय शोक नहीं भाव।
सुख विद्या शंका रहित, निर्मल मोक्ष की छाँव॥१.४०॥

 

सम्यग्द्रष्टि जीव अजर, अरुज, अक्षय, अव्याबाध, शोक, भय, शंकारहित चरमसीमा को प्राप्त सुख और ज्ञान के वैभव वाले निर्मल शिव मोक्ष को प्राप्त होते है।

Those who take refuse in right faith attain to the supreme seat, which is free from old age, disease, destruction, decrease, grief, fear and doubt and implies unqualified perfection in respect of wisdom and bliss and freedom from all kinds of impurities of karma.

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देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोऽर्चनीयम्।
धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं लब्धवा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्य:॥४१॥

देवेन्द्र व राजेन्द्र चक्र भी, धर्मेन्द्र चक्र का योग।
तीर्थंकर का पद मिले, सम्यग्दृष्टि संयोग॥१.४१॥

 

इस प्रकार जिनेंद्र देव की भक्ति करने वाला सम्यक दृष्टि भव्य जीव अपरिमित प्रमाण वाली देवेन्द्र समूह की महिमा को पाकर मुकुट बद्ध राजाओं के मस्तक से अर्चनीय राजेंद्र चक्र चक्रवती के पद को पाकर पर्व और लोक को अपना उपासक बनाने वाले धर्मेन्द्रचक्र रुप तीर्थंकर पद को पाकर अंत में शिवपद को प्राप्त होता है।

The bar via Jeeva who follows the JinendraDev acquires the immeasurable glory of deva life and position of Chakravarty, before whom Kings and rulers of man prostrate themselves and attain to the supremely worshipful status of Godhood finally also reaches Nirvana.

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