१५. आत्मसूत्र
उत्तम–गुणाण धामं, सव्व–दव्वाण उत्तमं दव्वं ।
तच्चाण परम तच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥1॥
उत्तमगुणानां धामं, सर्वद्रवयाणां उत्तमं द्रव्यम्।
तत्त्वानां परं तत्त्वं, जीवं जानीत निश्चयतः॥1॥
उत्तम गुण का धाम हैं, द्रव्य में उत्तम जान ।
तत्वों में है तत्व परम, जीव ही निश्चय जान ॥1.15.1.177॥
जीव उत्तम गुणों का आश्रय है, द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और तत्वों में परम तत्व है। यह निश्चयपूर्वक जान लें।
Know for certain that the soul is the home of excellent virtues, the best among the substances and the principle element of all elements. (177)
****************************************
जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य ।
परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥2॥
जीवाः भवन्ति त्रिविधाः बहिरात्मा तथा च अन्तरात्मा च।
परमात्मानः अपि च द्विविधाः, अर्हन्तः तथा च सिद्धाः च ॥2॥
अंतर या बहिरात्मा, होते तीन प्रकार ।
परमात्मा अरिहंत सिद्ध, दोय परम के तार ॥1.15.2.178॥
जीव (आत्मा) तीन प्रकार की है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार हैं। अर्हत् और सिद्ध।
The souls (Jivas) are of three kinds : External souls (Bahiratma), internal souls (Anataratma) and the pure souls (Sidhatma). The pure souls are of two kind : the Embodied pure souls (Arhat) and the Bodiless pure souls (siddhas). (178)
****************************************
अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पो ।
कम्मकलंक–विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥3॥
अक्षाणि बहिरात्मा, अन्तरात्मा खलु आत्मसंकल्पः।
कर्मकलमविमुक्तः, परमात्मा भण्यते देवः॥3॥
बहिरात्मा शरीर है, अन्तःजीव भी जान ।
कर्म कलंक विमुक्त भये, परम जीव पहचान ॥1.15.3.179॥
इन्द्रिय-समूह को आत्म के रूप में स्वीकार करनेवाला बहिरात्मा है। देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अन्तरात्मा है। कर्मों से मुक्त आत्मा परमात्मा है।
He, who accepts the aggregate of sense organs (body) as soul, is the external soul (Bahiratma) he who realizes soul as different from/other than body (something independent) is internal soul (Anataratma). The self who is liberated from the pollution of the Karmas is paramatma. (179)
****************************************
स–सरीरा अरहंता केवल–णाणेण मुणिय–सयलत्था ।
णाण–सरीरा सिद्धा, सव्वुत्तम सुक्ख संपत्ता ॥4॥
सशरीराः अर्हन्तः अर्हन्तः, केवलज्ञानेन ज्ञातसकलार्थाः।
ज्ञानशरीराः सिद्धाः, सर्वोत्तमसौख्यसंप्राप्ताः ॥4॥
सकल अर्थ को जान ले, अरिहंत केवल ज्ञान ।
ज्ञान शरीर ही सिद्ध है मिले मोक्ष सम्मान ॥1.15.4.180॥
Arhats are embodied pure souls, who know all objects from their prefect knowledge (Keval-jnan); and siddhas are those bodiless pure souls who are embodiments of knowledge and who have attained supreme bliss (sarvottam-sukha). (180)
****************************************
आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ।
झाइज्जइ परमप्पा, उवइट्ठं जिण–वरिंदेहिं ॥5॥
आरुह्य अन्तरात्मानं, बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन।
ध्यायते परमात्मा, उपादिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥5॥
जिनेश्वर का यह कहना है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो।
Lord Jinesvara has said “relinquishing the external soul from your mind, speech and body, realise the antaratma and contemplate on the supreme soul (paramatma)”. (181)
****************************************
चउ–गइ–भव–संभमणं, जाइ–जरा–मरण–रोय सोका य ।
कुल जोणि–जीव मग्गण–ठाणा, जीवस्सव णो संति ॥6॥
चतुर्गतिभवसंभ्रमणं, जातिजरामरण–रोगशोकाश्च ।
कुल योनिजीवमार्गणा–स्थानानि जीवस्य नो सन्ति ॥6॥
चतुर्गति मेें भ्रमण नहीं, जन्म–मरण नहीं शोक ।
कुल योनि जीव पथ नहीं, शुद्ध जीव नहीं भोग ॥1.15.6.182॥
शुद्ध आत्मा में चतुर्गतिरूप भव-भ्रमण, जन्म, रोग, बुढ़ापा, मरण, शोक तथा कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं होते।
The pure souls are completely free from and have no concern with transmigration (In four grades of life) birth, old age, death, disease, sorrow, family, a place of birth, a status in the scheme of
Jivasthanas, a status in the scheme of marganasthanas none of these really belongs to a soul. (182)
****************************************
वेण्ण–रस–गंध–फासा, थी–पुंस–णउंसयादि–पज्जया।
संठाणा संहणणा, सव्वे जीवस्स णो संति ॥7॥
वर्णरसगन्धस्पर्शाः, स्त्रीपुंनपुंसकादि–पर्यायाः।
संस्थानानि संहननानि, सर्वे जीवस्य नो सन्ति ॥7॥
वर्ण गंध रस स्पर्श नहीं, स्त्री पुरुष ना भेद।
संस्थान सहनन नहीं, शुद्ध जीव ना संवेद ॥1.15.7.183॥
शुद्ध आत्मा में वर्ण, रस, गंध, स्पर्श तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें तथा संस्थान और संहनन नहीं होता।
The pure souls are not concerned with colour (Varna), taste (Rasa), smell (Gandha) touch (sparsha), female form, male form, impotent form (as well as other forms) and figures of the body (Sansthan) and osseous structures of the body (Sainhanana). (183)
****************************************
एदे सव्वे भावा, ववहार–णयं पडुच्च भणिदा हु।
सव्वे सिद्ध–सहावा, सुद्ध–णया संसिदी जीवा ॥8॥
एते सर्वे भावाः व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु।
सर्वे सिद्धस्वभावाः, शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ॥8॥
भाव सब ये कहे गये, जानो नय व्यवहार।
जगत जीव भी सिद्ध है, विशुद्ध नयानुसार ॥1.15.8.184॥
ये सब भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से कहे गये हैं। निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीव भी सिद्धस्वरूप हैं।
All these subjects (Bhava) have been discussed from practical stand point (Vyavaharnaya). From real stand point (nischayanaya) the mundane souls Sansari-Jiva) are also pure souls. (184)
****************************************
अरस–मरूव–मगंधं, अव्वत्तं चेदणा–गुण–मसद्दं।
जाण अलिंग–ग्गहणं, जीव–मणिद्दिट्ठ–संठाणं ॥9॥
अरसमरूपमगन्धम् अव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्।
जानीह्यलिंगग्रहणं, जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥9॥
रूप–गंध–रस व्यक्त नहीं, विषय नही अनुमान।
संस्थागत होता नहीं शुद्ध जीव ना स्थान॥1.15.9.185॥
शुद्ध आत्मा अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चैतन्य, अशब्द, अलिगंग्राह्य (अनुमान का अविषय) और संस्थानरहित है।
The pure soul is tasteless, formless, smell-less, imperceptible, conscious, silent (nonvocal), uncognizable by organs (subject of assessment) and structureless. (185)
****************************************
णिद्दंडो णिद्दंद्दो, णिम्ममो–णिक्कलो णिरालंबो।
णीरगो णिद्दोसो, णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ॥10॥
निर्दण्डः निर्द्वन्द्वः, निर्ममः निष्कलः निरालम्बः।
नीरागः निर्द्वेषः, निर्मूढ़ः निर्भयः आत्मा ॥10॥
दण्ड, द्वन्द्व, ममता नहीं, ना शरीर आधार।
राग–द्वेष व मोह नहीं, भय ना जीव विचार ॥1.15.10.186॥
आत्मा मन, वचन और कायारूप त्रिदंड से रहित, निर्द्वंद्ध-अकेली, निर्मम-ममत्वरहित, निष्कल-शरीररहित, निरालम्ब-परद्रव्यालम्बन रहित, वीतराग, निर्दोष, मोहरहित तथा निर्भय है।
The pure souls is devoid of the trirod (tridanda) of mind, speech and body (Man-vacankaya ke tri-danda se rahit), singular (Nirdvarua/Akela), without mineness (Mamata rahit/Nirmam) Bodiless (Niskala), independent (Niralamba),dispassionate (vitrag) innocent (Nirdosa/ unblemished) undeluded (Moharahit/Nirmukha) and fearless (Nirbhaya). (186)
****************************************
णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयल–दोस–णिम्मुक्को।
णिक्कामो णिक्कोहो, णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥11॥
निर्ग्रन्थो नीरागो, निःशल्यः सकलदोनिर्मुक्तः ।
निष्कामो निष्क्रोधो, निर्मानो निर्मदः आत्मा ॥11॥
ग्रंथ, राग माया रहित, सकल मुक्त निर्दोष।
काम क्रोध व मान नहीं, जीव नहीं मदहोश॥1.15.11.187॥
आत्मा निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही जो अपने पास कुछ नहीं रखती), नीराग (जिसे किसी से राग नहीं), निःशल्य (माया से रहित), सब दोषों से मुक्त (निमुक्त),कामना रहित (निष्काम), निःक्रोध, निर्मान (जिसे कोई घमण्ड नही) तथा निर्मद (जिसे मद नहीं) है।
The (pure) soul is possessionless (without knot), unattached, unblemished (Nihsalya/without thorns of diagnosis), undelude and right believing free of all the defects, desire-less anger-less, pride-less and un-intoxicated. (187)
****************************************
ण वि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धा णादा जो सो दु सो चेव ॥12॥
नापि भवत्यप्रमत्तो, न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः।
एवं भणन्ति शुद्धं, ज्ञातो यः स तु स चैव ॥12॥
होश ना मदहोश नहीं, ज्ञायक जीव स्वभाव ।
ज्ञायक में ही ज्ञात है, शुद्ध जीव का भाव॥1.15.12.188॥
आत्मा ज्ञायक है जानने वाली है। ज्ञायक प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं होता। जो प्रमत्त और अप्रत्त नहीं होता वो शुद्ध होता है। आत्मा ज्ञायकरूप में ही ज्ञात है।
The (pure) soul is the knower. He who is a knower is neither careful (Apramatta) nor care-less (Pramatta) and he who is neither careful nor careless knower is called pure, because it is only knower and nothing else. (188)
****************************************
णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं ॥13॥
नाहं देहो न मनो, न चैव वाणी न कारणं तेषाम्।
कर्त्ता न न कारयिता, अनुमन्ता नैव कर्तृणाम् ॥13॥
मन वचन और तन नहीं, कारण उसे न मान।
करे व करवाये नहीं, अनुमोदन ना जान ॥1.15.13.189॥
आत्मा न शरीर है न मन है न वाणी है और न उनका कारण है। मैं न करता हूँ न करवानेवाला हूँ और न करता अनुमोदक ही हूँ।
The soul is neither body, nor mind, nor speech nor the cause itself. I’m neither doer nor the motivator of doer and nor the supporter of doer. (189)
****************************************
को णाम भणिज्ज बुहो, णादुं सव्वे परोदये भावे।
मज्झ–मिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ॥14॥
को नाम भणेद् बुधः, ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्।
ममेदमिति चं वचनं, जानन्नात्मकं शुद्धम् ॥14॥
शुद्ध जीव जो जानता, जाने और स्वभाव।
‘यह मेरा’ कैसे कहे, ज्ञानी शुद्ध प्रभाव ॥1.15.14.190॥
आत्मा के शुद्धरूप को जानने वाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा जो यह कहेगा कि “यह मेरा है”।
After knowing that the pure soul is different from everything else, is there any wise man who says “this is mine”? (190)
****************************************
अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाण–दंसण–समग्गो ।
तम्हि ठिदो तच्चितो, सव्वे एदे खयं णेमि ॥15॥
अहमेकः खलु शुद्धः, निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्रः।
तस्मिन् स्थितस्तच्चित्तः, सर्वानेतान् क्षयं नयामि ॥15॥
बिन ममता इक शुद्ध मैं, ज्ञान व दर्शन सार।
स्थित रहता इस भाव में, क्षय हो सभी विचार ॥1.15.15.191॥
मै एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममतारहित हूँ, तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूँ।
I am one (indivisible whole), pure unattached (Mamatarahit) and full of perception and knowledge (Jnan-darsheparipurna).Having been settled and absorbed in my true nature, I destroy all
of them (i.e. parkiyabhav). (191)
****************************************